सी एम उपध्याय 'शून्य आकाँक्षी' के दोहे
बनता वट लघु बीज से, खोल, न आँखें मूँद।वर्षा में सरिता बने, मिल-मिल छोटी बूँद।।
अति आकांक्षा की डगर, जाती रेगिस्तान।
‘शून्य’ कहे जन से जुड़ो, उपजे नखलिस्तान।।
दौड़-दौड़ कर थक गया, तृष्णा गई न क्लेश।
जितना चाहूँ मान यश, उतनी लगती ठेस।।
कर्मक्षेत्र को कम समय, बहुआकाँक्षी लोग।
भाँति-भाँति के भरम हैं, भाँति-भाँति के रोग।।
पापकर्म में लिप्त थे, आजीवन जो लोग।
गंगाजल को बेचकर, दूर कर रहे रोग।।
शौक जलाने का जिन्हें, आँधी बीच चिराग।
वे यह भी हैं जानते, जली रहे किम आग।।
घर, दफ्तर, कोरट कहा, सच पर माना कौन।
झूठ, साँच सर बैठता, कब तक राखें मौन।।
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