डॉ. तुकाराम वर्मा के दोहे
लेन-देन के फेर में, पसर गया अंधेर।न्याय लगे अन्याय-सा, जब होती है देर।।
नीर न जिनके नयन में, उनसे कैसी आस।
सूख गये जो भी कुए, उनसे बुझे न प्यास।।
लाखों-लाख बटोर के, संचय कई करोड़।
वो कर सकता जो करे, सत्ता से गठजोड़।।
देख रहा प्रत्येक दृग, उन सबका अभिषेक।
यूँ कितने वे नेक हैं, समझे काव्य विवेक।।
जिन कर-कमलों ने दिया, जूतों का संसार।
झेल रहे हैं आज भी, वे शोषण की मार।।
राजनीति की शक्ति का, शानदार सम्मान।
आये तुरत बचाव में, बड़े-बड़े विद्वान।।
यह जीवन का सूत्र है, नहीं मानिये गल्प।
सच का होता है नहीं, कोई और विकल्प।।
उर पीड़ा से भीगती, जहाँ दृगों की कोर।
कवि के अपने आप ही, पैर उठें उस ओर।।
धर्म दण्ड जिस हाथ में, सत्ता का अधिकार।
उसके अत्याचार का, कौन करे प्रतिकार?
जो सत्ता की शक्ति से, करते हैं व्यापार।
उन सबका आधार तो, होता भ्रष्टाचार।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें