संदीप 'सरस' के दोहे
दरवाज़े की ओट से, झाँक रहे
दो नैन।
बेटा घर लौटा नहीं, अम्मा है बेचैन।।
थाली में रोटी बची, अम्मा
हुई उदास।
बेटा भूखा उठ गया, उसको है एहसास।।
आँगन की दीवार ने, घर को किया मकान।
माँ ने चुप्पी
साध ली, बापू है हैरान।।
घर आँगन में खींच दी, बेटों ने
दीवार।
माँ फिर भी है देखती, दीवारों
के पार।
मक्के की रोटी बनी, सँग
सरसों का साग।
अम्मा की ममता हुई, ज्यों
चूल्हे की आग।।
बेटा लौटा खेत से, हल से सूरज नाप।
माँ ने आँचल ढक दिया, मिटा जेठ
का ताप।।
घर आँगन सब बांट लो, बांटो सब जागीर।
हरगिज बाँटूगा नहीं, अम्मा की
तस्वीर।।
बच्चे मेरी राय को, ख़ारिज
करें तमाम।
फिर भी बोलूंगा सदा, कहना मेरा
काम।।
गिरवी रख दूँ सत्य को, कैसे रह लूँ मौन?
युग पूछेगा प्रश्न तो, उत्तर देगा कौन?
सीले सीले से लगे, सम्बन्धों
के योग।
रीते रीते से
लगे, उत्सवधर्मी लोग।।
आँगन में तुलसी नहीं, मनी प्लांट की बेल।
शुचिता पर हावी हुआ, वास्तु
शास्त्र का खेल।।
अँधियारे का दीप ने, पंजा दिया
मरोड़।
कहा निशा से भोर तक, मेरी
तुझसे होड़।।
पथ कितना दुर्गम रहा, तजा नहीं गन्तव्य।
मेरे अधरों पर सदा, सजा सत्य
मन्तव्य।
उजियारे हित सूर्य की, बाँहें दिया
मरोड़।
प्यास नदी से ना बुझी, बादल
लिया निचोड़।।
संघर्षों की कोख से, उपजा है प्रतिसाद।
अक्षर अक्षर में पगा, रचना का
संवाद।।
मन में हो यदि आस्था, मन में
हो अनुराग।
एक कदम काशी मिले, दूजे कदम
प्रयाग।।
कांटों ने साजिश रची, लिया
चुभन को घोल।
किन्तु गुलाबों का कभी, घटा न
कोई मोल।।
सुनो हौसले पर मेरे, कभी न करना वार।
मेरे सर से आपका, पत्थर जाए
हार।।
द्रोण निरुत्तर हो गए, भीष्म हो
गए मौन।
प्रश्न द्रौपदी के सुनो, उत्तर देगा
कौन।।
कौन किसी को ख़त लिखे, देगा कौन जवाब।
मिले किताबों में मुझे, सूखे हुए
गुलाब।।
सत्य बोलना हो गया, सबसे बड़ा
गुनाह।
मक्कारी के द्वार पर, गैरत रही
कराह।।
सम्मुख हो अन्याय तो, कैसे चुप
हैं आप।
जीवन रीढ़ विहीन सा, जीना है
सन्ताप।।
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