शैलेन्द्र शर्मा के दोहे
काली रातों का जिन्हें, भाता है विस्तार।
आज उजाले के वही, जुगनू ठेकेदार।।
जिनके कारण नट बने, करतब किये हजार।
निगल गईं वे रोटियाँ, सपनों का संसार।।
गंगू जी अब शाह हैं, कंगले राजा भोज।
जलकुम्भी फूले-फले, कुम्हला रहे सरोज।।
बड़ा अजब यह दौर है, छिनता मुँह का कौर।
गिद्धों के साम्राज्य में, गौरैया बे-ठौर।।
मन के हैं गन्दे बहुत, तन पर धुली कमीज़।
सिखा रहे हैं आजकल, हमको वही तमीज़।।
रंग अलग, ख़ुशबू अलग, और अलग है ताब।
हर पल काँटों से घिरा, हँसता रहे गुलाब।।
शब्द-शब्द तेज़ाब है, रोम-रोम में रोष।
छलनी में हैं दूहते, देते विधि को दोष।।
अमरबेल ने ढँक लिये, जामुन, आम, बबूल।
फल, पत्ते, काँटे सभी, होंगे नष्ट समूल।।
पत्थर-सी ठोकर कभी, कभी जोंक-सा प्यार।
रह-रह कर देता मुझे, यह निष्ठुर संसार।।
सूरज दुबका है कहीं, ठहरी-सिकुड़ी रात।
जगह-जगह फुटपाथ पर, अकड़ा मिला प्रभात।।
जुमलों की तलवार ले, बे-शर्मी की ढाल।
छद्म-युद्ध है चल रहा, जनता है बेहाल।।
पार हो रहीं सब हदें, कौन सुने फ़रियाद।
गिद्ध-भोज में व्यस्त सब, हर फ़न के उस्ताद।।
उलटी हुईं कहावतें, उलट गये उपमान।
दायें को बायाँ कहे, दर्पण बेईमान।।
दीमक लगी किताब में, मेधा चरती घास।
विश्वग्राम की हाट में, कबिरा खड़ा उदास।।
सम्बन्धों की क्यारियाँ, सींच खिलाये फूल।
अवसर पाते आपने, डाली उन पर धूल।।
रह-रह फुदके मेढ़की, मेढ़क ले आलाप।
बढ़ता है बढ़ता रहे, पपिहे का संताप।।
ऊसर में टेसू खड़े, नख से शिख तक लाल।
अँधियारे के बीच में, जैसे जले मशाल।।
अमरबेल-सा आचरण, और गिद्ध-सी दृष्टि।
हो जिनकी उनसे भला, कैसे बचे समष्टि।।
चुल्लू भर पानी नहीं, सागर जैसा दम्भ।
ईश्वर जाने अन्त क्या, जब ऐसा प्रारम्भ।।
लहराते जल सी दिखे, दूर चमकती रेत।
मरुथल में हम खोजते, जीवन का अभिप्रेत।।
जिनके कारण नट बने, करतब किये हजार।
निगल गईं वे रोटियाँ, सपनों का संसार।।
गंगू जी अब शाह हैं, कंगले राजा भोज।
जलकुम्भी फूले-फले, कुम्हला रहे सरोज।।
बड़ा अजब यह दौर है, छिनता मुँह का कौर।
गिद्धों के साम्राज्य में, गौरैया बे-ठौर।।
मन के हैं गन्दे बहुत, तन पर धुली कमीज़।
सिखा रहे हैं आजकल, हमको वही तमीज़।।
रंग अलग, ख़ुशबू अलग, और अलग है ताब।
हर पल काँटों से घिरा, हँसता रहे गुलाब।।
शब्द-शब्द तेज़ाब है, रोम-रोम में रोष।
छलनी में हैं दूहते, देते विधि को दोष।।
अमरबेल ने ढँक लिये, जामुन, आम, बबूल।
फल, पत्ते, काँटे सभी, होंगे नष्ट समूल।।
पत्थर-सी ठोकर कभी, कभी जोंक-सा प्यार।
रह-रह कर देता मुझे, यह निष्ठुर संसार।।
सूरज दुबका है कहीं, ठहरी-सिकुड़ी रात।
जगह-जगह फुटपाथ पर, अकड़ा मिला प्रभात।।
जुमलों की तलवार ले, बे-शर्मी की ढाल।
छद्म-युद्ध है चल रहा, जनता है बेहाल।।
पार हो रहीं सब हदें, कौन सुने फ़रियाद।
गिद्ध-भोज में व्यस्त सब, हर फ़न के उस्ताद।।
उलटी हुईं कहावतें, उलट गये उपमान।
दायें को बायाँ कहे, दर्पण बेईमान।।
दीमक लगी किताब में, मेधा चरती घास।
विश्वग्राम की हाट में, कबिरा खड़ा उदास।।
सम्बन्धों की क्यारियाँ, सींच खिलाये फूल।
अवसर पाते आपने, डाली उन पर धूल।।
रह-रह फुदके मेढ़की, मेढ़क ले आलाप।
बढ़ता है बढ़ता रहे, पपिहे का संताप।।
ऊसर में टेसू खड़े, नख से शिख तक लाल।
अँधियारे के बीच में, जैसे जले मशाल।।
अमरबेल-सा आचरण, और गिद्ध-सी दृष्टि।
हो जिनकी उनसे भला, कैसे बचे समष्टि।।
चुल्लू भर पानी नहीं, सागर जैसा दम्भ।
ईश्वर जाने अन्त क्या, जब ऐसा प्रारम्भ।।
लहराते जल सी दिखे, दूर चमकती रेत।
मरुथल में हम खोजते, जीवन का अभिप्रेत।।
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