हरिलाल मिलन के दोहे
तोड़ रही मजबूूरियाँ, उस समर्थ के व्यूह।जिसके तन में आ बसी, किसी बधिक की रूह।।
सुबह-शाम पीता रहा, सूरज जिसका रक्त।
क्या करता सूरजमुखी, हुआ उसी का भक्त।।
मंजिल डाकू ले गए, मार्ग हुए लाचार।
कितना छोटा हो गया, जीने का आधार।।
अधिकारों को रोंदकर, सब हो गए महान।
जितने पत्थर पास हैं, उतने हैं भगवान।।
दोनों मिलकर खींचते, अपनी-अपनी ओर।
तट के अत्याचार से, नदी हुई कमजोर।।
डगर-डगर है अपहरण, कहीं न तन को छाँव।
चंबल-चंबल हो गए, नगर-मुहल्ले-गाँव।।
सिद्ध कर गया मंच पर, नेताओं का राग।
अब भी हैं संसार में, इच्छाधारी नाग।।
अश्यों की चिंगारियाँ, ज्वालाओं के पुंज।
शायद मुझसे ही जला, मेरा हृदय-निकुंज।।
पहन जीत का हार भी, हैं कितनी मजबूर।
आजादी की माँग में, संशय का सिंदूर।।
सीने में जब भी चुभे, व्यथा-गणित के बाण।
समीकरण हल कर गई, बच्चे की मुसकान।।
पर्यावरण उदास है, वातावरण अधीर।
लाशें ढोती रह गई, गंगा की तकदीर।।
फिल्मी-चित्रों से रचे, मन-भावन रविवार।
ऊब गए साहित्य से, अब शायद अखबार।।
मानचित्र छोटा हुआ, सिमट गया आकार।
खंड-खंड किसने किया, इस अखण्ड का प्यार।।
कैसे होगा विश्व में, आगे युद्ध-विराम।
कभी मिले लादेन तो, कभी मिले सद्दाम।।
सूरज भी जलने लगा, देख धरा की आग।
खेल रहा कश्मीर में, समय लहू का फाग।।
नकली औषधि से हुआ, ‘नर्सिंग' होम उदास।
तड़प-तड़प कर मर गया, बेटा माँ के पास।।
सागर भी बँटता नहीं, बँटा नहीं आदित्य।
दलित-दलित कहकर ‘मिलन’, मत बाँटो साहित्य।।
छिपा गई सडक़ें ‘मिलन’, फिर गड्ढ़ों के राज।
गुजर रहा है कारवाँ, किस मंत्री का आज।।
भूख भौतिकता की भूख का, कितना गहरा पेट|
अब मानव ही कर रहा, मानव का आखेट||
मैं माँगू तो भीख है, वे माँगे तो दान|
मैं शायद इंसान हूँ, वे शायद भगवान||
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