देवेश दीक्षित 'देव' के दोहे
आटा चावल दाल से, गया न आगे ध्यान।रोटी तक सीमित रहा, मुफ़लिस का अरमान।।
कभी सुखों से मेल है, कभी दुःखों से मेल।
इंसानों की ज़िंदगी, है किस्मत का खेल।।
धरती ने कुछ शाम को, कह दी ऐसी बात।
बादल के बहते रहे, आँसू सारी रात।।
सकल जगत का आदि से, देखा यही विधान।
उगते सूरज का सभी, करते हैं गुणगान।।
एक झील से प्यास को, मिला यही प्रतिदान।
सहरा की हम आज भी, ख़ाक रहे हैं छान।।
अंदर-अंदर नफ़रतें, ऊपर-ऊपर प्यार।
निभा रहा है आदमी, यूँ दोहरा किरदार।।
सुख-दुःख सबके साथ में, रहे मृत्युपर्यन्त।
जीवन के दो रूप हैं, पतझड़ और बसंत।।
फूलों से ही हो गया, घायल जब अहसास।
काँटों पर करते भला, कैसे हम विश्वास।।
बरस रहे हैं झील पर, बादल बारह मास
सहराओं में हर तरफ़, भटक रही है प्यास।।
माली का डर क्या हुआ, यूँ उपवन में आज।
कलियाँ सारी हो गयीं, भँवरों की मोहताज।।
कल तक जो दीपक लड़े, तूफ़ानों से जंग।
घूम रहे हैं आजकल, अँधियारों के संग
हद से ज़्यादा यदि किया, हमने दोहन आज
हो जाएँगे एक दिन,पानी को मुहताज।।
सकुनी माहिल मंथरा, बोल-बोलकर झूठ।
परिवारों के बीच में, डाल रहे हैं फूट।।
मुँह पर मीठा बोलते, दिल में रखें कटार।
ऐसे मित्रों से भले, दुश्मन पानीदार।।
नई सदी का देखिए, अपना भारतवर्ष।
जिसे गर्त में ले गया, सत्ता का संघर्ष।।
गुम-सुम से रहने लगे, बूढ़े रोशनदान।
जबसे घर में हो गए, दीवारों के कान।।
शीत ग्रीष्म बरसात में, चलती रही अधीर।
सागर ने समझी नहीं, कभी नदी की पीर।।
आत्ममुग्धता का लगा, जाने कैसा रोग।
पंजों के बल चल रहे, क़द के बौने लोग।।
रातों में नींदें नहीं, दिन में मिले न चैन।
होश उड़ाकर ले गए, दो कजरारे नैन।।
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