निरपराध धनिया खड़ा, कौन करेगा माफ।
है धनिकों के पास में, बिका हुआ इन्साफ।।
सुना रहा है आजकल, वही खबर अखबार।
लूट, कत्ल, धोखाधड़ी, घोटाले, व्यभिचार।।
जीवन के इस गाँव में, ठीक नहीं आसार।
मुखिया के संग हर घडी, गुंडे हैं दो-चार।।
ठगी द्रोपदी रह गयी, टूट गया विश्वास।
संरक्षण कब मिल सका, अपनों के भी पास।।
समझा सकी न झोपड़ी, अपना गहन विषाद।
मन की भाषा और थी, और हुआ अनुवाद।।
समझा वह अच्छी तरह, कैसा यह संसार।
फिरता रहता आजकल, लेकर शब्द उधार।।
आशाएं धूमिल हुईं , सपने हुए उदास।
सब के द्वारे बंद हैं, जाएँ किसके पास।।
महँगाई के दौर में, सरल नहीं है राह।
जीवन नैया डोलती, दुख की नदी अथाह।।
मौन खड़े हैं आजकल, मीरा, सूर, कबीर।
लोगों को सुख दे रही, आज पराई पीर।।
कैसे झेले आदमी, महँगाई की मार।
सूख रहे हैं द्वार पर, सपने हरसिंगार।।
छूयेगी किस शिखर को, महँगाई इस साल।
खाई में जनता गिरी, रोटी मिले न दाल।।
जीवन यापन के लिए, कोशिश हुईं तमाम।
पेट, हाथ खाली रहे, मिला न कोई काम।।
खाली-खाली मन मिला, सूने-सूने नैन।
दुविधाएं मेहमान थीं, गाँव बहुत बेचैन।।
फसी भँवर में जिंदगी, हुए ठहाके मौन।
दरवाजों पर बेबसी, टांग रहा है कौन।।
इस मायावी जगत में, सीखा उसने ज्ञान।
बिना किये लटका गया, कंधे पर अहसान।।
महानगर या गाँव हो, एक सरीखे लोग।
परम्पराएँ भूल कर, भोग रहे है भोग।।
सूखा सावन देखकर, चातक हुआ अधीर।
दुनिया खुद में बावरी, कौन समझता पीर।।
छोड़ा था पीछे जिसे, ढूँढ रहा वह गाँव।
लोग मिले, गायब मिली, संबंधों की छाँव।।
है धनिकों के पास में, बिका हुआ इन्साफ।।
सुना रहा है आजकल, वही खबर अखबार।
लूट, कत्ल, धोखाधड़ी, घोटाले, व्यभिचार।।
जीवन के इस गाँव में, ठीक नहीं आसार।
मुखिया के संग हर घडी, गुंडे हैं दो-चार।।
ठगी द्रोपदी रह गयी, टूट गया विश्वास।
संरक्षण कब मिल सका, अपनों के भी पास।।
समझा सकी न झोपड़ी, अपना गहन विषाद।
मन की भाषा और थी, और हुआ अनुवाद।।
समझा वह अच्छी तरह, कैसा यह संसार।
फिरता रहता आजकल, लेकर शब्द उधार।।
आशाएं धूमिल हुईं , सपने हुए उदास।
सब के द्वारे बंद हैं, जाएँ किसके पास।।
महँगाई के दौर में, सरल नहीं है राह।
जीवन नैया डोलती, दुख की नदी अथाह।।
मौन खड़े हैं आजकल, मीरा, सूर, कबीर।
लोगों को सुख दे रही, आज पराई पीर।।
कैसे झेले आदमी, महँगाई की मार।
सूख रहे हैं द्वार पर, सपने हरसिंगार।।
छूयेगी किस शिखर को, महँगाई इस साल।
खाई में जनता गिरी, रोटी मिले न दाल।।
जीवन यापन के लिए, कोशिश हुईं तमाम।
पेट, हाथ खाली रहे, मिला न कोई काम।।
खाली-खाली मन मिला, सूने-सूने नैन।
दुविधाएं मेहमान थीं, गाँव बहुत बेचैन।।
फसी भँवर में जिंदगी, हुए ठहाके मौन।
दरवाजों पर बेबसी, टांग रहा है कौन।।
इस मायावी जगत में, सीखा उसने ज्ञान।
बिना किये लटका गया, कंधे पर अहसान।।
महानगर या गाँव हो, एक सरीखे लोग।
परम्पराएँ भूल कर, भोग रहे है भोग।।
सूखा सावन देखकर, चातक हुआ अधीर।
दुनिया खुद में बावरी, कौन समझता पीर।।
छोड़ा था पीछे जिसे, ढूँढ रहा वह गाँव।
लोग मिले, गायब मिली, संबंधों की छाँव।।
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