कृष्णा कुमारी ‘कमसिन’ के दोहे
गज़ल कहें दोहा कहें, या फिर लिखें गीत।सबका अपना कायदा, सबकी अपनी रीत।।
हर क्यारी केसर हुई, सरसों-सरसों खेत।
दिन दूना बढऩे लगा, अब जल-थल का हेत।।
तारों से जेबें भरीं, यादों भरी परात।
दिवस मनचले हो गये, जोगन हो गईं रात।।
पात विहीना वाटिका, मन विहीन है गाँव।
कोयलिया गाये ग़ज़ल, बैठ गगन की छाँव।।
हमदर्दी के बोल भी, हुए न कभी नसीब।
अपनों ने बख़्शी सदा, काँटों भरी सलीब।।
झूठ कहा अक्सर बहुत, अब सुनिये कुछ साँच।
निशि ने मुँह काला किया, भोर देखती काँच।।
ज़हर मनुज के ज़हन में, सारा दिया निचोड़।
साँप-सपोले सो गये, केंचुल-कम्बल ओढ़।।
तोड़ी है विश्वास की, जबसे तुमने डोर।
रैन-रैन जीवन लगे, स्वप्र-स्वप्र-सी भोर।।
गगन न मुट्ठी-भर बचा, धरा न डग-भर पास।
‘कृष्णा’ लूटा प्यार ने, दे-देकर विश्वास।।
कौन सगा है, कौन है, बुरे दिनों में मित्र।
रेखाऐं सब मिट गईं, धुँधलाया हर चित्र।।
उसने ही सबको दिया, जिसके खाली हाथ।
सागर देता है कहाँ, मरुस्थलों का साथ।।
प्रेम-प्रेम रटती रही, मिला न तिल-भर नेह।
साँसे विधवा हो गईं, आँखें हो गईं मेह।।
हर आँसू मीरा हुआ, पीड़ा हुई कबीर।
हृदय-अहिल्या सह रहा, युगों-युगों से पीर।।
रहा नहीं आकाश का, पहले जैसा रंग।
धरती के भी और ही, हुए रंग औ' ढंग।।
बाट जोहते हो गईं, आँखें मेरी सूर।
दया तनिक आई नहीं, तुम हो कितने क्रूर।।
काश ख़्वाब में ही कभी, मिल जाये वो फूल।
नज़रें जिसको देखकर, सुध-बुध जायें भूल।।
जात-धर्म क्या पूछिये, मैं तो हूँ इन्सान।
कृष्णा ‘कमसिन’ नाम है, बस मेरी पहचान।।
सीमाओं में बाँध लूं, कैसे अपना प्यार|
मुझको तो प्यारा लगे, सारा ही संसार||
सुबह अँधेरे से दुखी, चकाचौंध से शाम|
धूप दुपहरी भर करे, ओढ़ दुशाला काम||
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