डॉ. सुरंगमा यादव के दोहे
नारी को देवी कहें, करते नित अपमान।पहले मानो मानवी, फिर करना गुणगान।।
नारी नर की सहचरी, प्रेम दया का रूप।
नारी के सम्मान बिन, घर है अंधा कूप।।
समझे नारी हीन है, लिया बपौती मान।
आज उन्हीं के सामने, लेकर खड़ी कमान।।
पथ पथरीला हो भले, कभी न माने हार।
आँसू पीकर भी हँसे, देती सब सुख वार।।
नारी नर से कम नहीं, अब तो लो यह जान।
उसका भी सम्मान हो, बढ़े सभी का मान।।
नारी बढ़ती तुम चलो, मन में लो यह ठान।
खुद अपने अस्तित्व को, देनी है पहचान।।
आजादी की भोर है, मन में भर उल्लास।
घुट-घुट जीना छोड़ दे, खुलकर ले अब साँस।।
पाना है मुश्किल बड़ा, खोना है आसान।
जो खोया सो भूल जा, अब पाने की ठान।।
नारी कोमल फूल सी, पग-पग बिखरे शूल,
अंगारों पर चल रही, सब पीड़ाएं भूल ।।
फिर न दुशासन कर सके, सीमाओं को पार।
अपनी रक्षा के लिए, हो जाओ तैयार।।
पग-पग बैठे दैत्य हैं, घात लगाये क्रूर।
गति अवरोधक हैं बहुत, जाना तुमको दूर।।
नारी आगे बढ़ रही, बड़ी खुशी की बात।
उदित हुआ सूरज नया, बीत गयी है रात।।
कितने झंझा झेलती, निखर उठी हर बार।
दुख सहती चुपचाप है, खुशियाँ देती वार।।
कहते नारी नरक है, खुद डूबे आकंठ।
स्वांग रचाये घूमते, माला डाले कंठ।।
नारी को अबला कहा, मन कर दिया मलीन।
अपनी सत्ता के लिए, रचें प्रपंच नवीन।।
बिटिया रानी बन पली, फिर पहुँची ससुराल।
रानी, बांदी बन गयी, जीना हुआ मुहाल।।
काँटा बनती सूख कर, मिले न सुख की छाँव।
धूँ-धूँ कर यौवन जले, जान न पायी दाँव।।
करुण कथा संघर्ष की, नारी जीवन गीत।
सीता हो या राधिका, सदा निभायी प्रीत।।
नारी को लज्जित करें, समझें खुद को शूर।
खुद अपने पुरुषत्व को, करें कलंकित क्रूर।।
जिनकी बोली सुन समझ, सीखे तूने बोल।
आज उन्हीं की बात का, रहा नहीं क्यों मोल।।
परदेसी पंछी सुनो, जब आना इस बार।
उनको लाना संग में, भूले जो घर द्वार।।
पढ़े लिखे शहरी बने, भूल गये पहचान।
ऐसे आते गाँव में, जैसे हों अनजान।।
रोती है इन्सानियत, हँसते दानव दैत्य।
मानव करने लग गया, सारे खोटे कृत्य।।
पाषाणों के शहर में, प्रतिमाओं का साथ।
खोज रहे संवेदना, खंजर लेकर हाथ।।
जाने क्यों मन हो गया, मेरा आज उदास।
व्यर्थ वाद की हर जगह, बहती आज बतास।।
स्वांग रचाये फिर रहे, बनते भारी सन्त।
आप बड़ाई खुद करें, ऐसे हैं गुणवन्त।।
बनी बनायी लीक पर, चलना है आसान।
नयी लीक रखना यहाँ, कठिन भगीरथ जान।।
अमराई की छाँव में, छन कर आती धूप।
कोयल कानों में कहे, मीठे बोल अनूप।।
सावन भादों बन गये, मेरे व्याकुल नैन।
मन पापी प्यासा फिरे, तुम बिन है बेचैन।।
शासक शासन मौन हैं, खूब बढ़े अपराध।
अंधा बहरा युग हुआ, मनुज रहे एकाध।।
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