रामनारायण मीणा ’हलधर‘ के दोहे
नींव खुदायी बाप ने, माँ ने फेंकी गार।
अब बेटों ने डाल दी, आँगन में दीवार।।
कुशल अँगूठे हर जगह, होते रहे शिकार।
गुरुकुल से बचकर रहे, साहुकार तैयार।।
आँखों में चिंगारियाँ, विद्रोही स्वभाव।
उसे विरासत में मिले, आँसू कजऱ् अभाव।।
खेतों में विष घुल गया, नदियों में तेजाब।
इक चिमनी की नींव में, दफ न हजारों ख्वाब।।
शायर ढूंढे का$िफया, गायक संगतकार।
हमने ढंूढे इस तरह, अपने सच्चे यार।।
तिनके लेकर बुलबुलें, बैठी थीं कम्ब$खत।
वरना कब का गिर गया, होता एक दर$खत।।
जब से हम सुनने लगे, केवल दिल की बात।
तब से काबू में नहीं, घर भर के हालात।।
कैसे करता आपकी, बातों पर विश्वास।
मिलते ही तारी$फ और, मुड़ते ही उपहास।।
जीवन भर हावी रहे, पेट और परिवार।
वरना कितने लोग थे, शिखरों के ह$कदार।।
जब तक मेरे गाँव में, आओगे सरकार।
भूख हमें ले जाएगी, तब तक तो हरिद्वार।।
जिनकी शह पर बस्तियाँ, जलीं हमारी रात।
वे ही कम्बल बाँटते, आए आज प्रभात।।
मरने वाले मर गए, रोए घर परिवार।
कुछ लोगों का भूख से, चल निकला व्यापार।।
हर मौसम करता रहा, ‘हलधर’ सपने ध्वस्त।
ए. सी. से निकले नहीं, बाहर बंदोबस्त।।
देख हमारी उंगलियाँ, मिटी न इनकी छाप।
मतगणना के साथ ही, भूले हमको आप।।
जब जब ताज़ा सुर्खियाँ, मारें हमको डंक।
रद्दी को लगने लगें, उम्मीदों के पंख।।
सूरज बसा विदेश में, चाँद गया ससुराल।
तारे आकर पूछते, धरती माँ के हाल।।
जिसने कितने नाज़ से, पहनाया है ताज।
उसके ही घर में नहीं, अब दो सेर अनाज।।
रिश्ते, नाते, गाँव घर, जब जब आए ध्यान।
मुझको बेमानी लगे, सुख के सब सामान।।
कुशल अँगूठे हर जगह, होते रहे शिकार।
गुरुकुल से बचकर रहे, साहुकार तैयार।।
आँखों में चिंगारियाँ, विद्रोही स्वभाव।
उसे विरासत में मिले, आँसू कजऱ् अभाव।।
खेतों में विष घुल गया, नदियों में तेजाब।
इक चिमनी की नींव में, दफ न हजारों ख्वाब।।
शायर ढूंढे का$िफया, गायक संगतकार।
हमने ढंूढे इस तरह, अपने सच्चे यार।।
तिनके लेकर बुलबुलें, बैठी थीं कम्ब$खत।
वरना कब का गिर गया, होता एक दर$खत।।
जब से हम सुनने लगे, केवल दिल की बात।
तब से काबू में नहीं, घर भर के हालात।।
कैसे करता आपकी, बातों पर विश्वास।
मिलते ही तारी$फ और, मुड़ते ही उपहास।।
जीवन भर हावी रहे, पेट और परिवार।
वरना कितने लोग थे, शिखरों के ह$कदार।।
जब तक मेरे गाँव में, आओगे सरकार।
भूख हमें ले जाएगी, तब तक तो हरिद्वार।।
जिनकी शह पर बस्तियाँ, जलीं हमारी रात।
वे ही कम्बल बाँटते, आए आज प्रभात।।
मरने वाले मर गए, रोए घर परिवार।
कुछ लोगों का भूख से, चल निकला व्यापार।।
हर मौसम करता रहा, ‘हलधर’ सपने ध्वस्त।
ए. सी. से निकले नहीं, बाहर बंदोबस्त।।
देख हमारी उंगलियाँ, मिटी न इनकी छाप।
मतगणना के साथ ही, भूले हमको आप।।
जब जब ताज़ा सुर्खियाँ, मारें हमको डंक।
रद्दी को लगने लगें, उम्मीदों के पंख।।
सूरज बसा विदेश में, चाँद गया ससुराल।
तारे आकर पूछते, धरती माँ के हाल।।
जिसने कितने नाज़ से, पहनाया है ताज।
उसके ही घर में नहीं, अब दो सेर अनाज।।
रिश्ते, नाते, गाँव घर, जब जब आए ध्यान।
मुझको बेमानी लगे, सुख के सब सामान।।
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