दीपक अवस्थी 'अक्षत' के दोहे
बासमती गोदाम में, खुद की थाली भात|
नोटों के बंडल कहाँ ? सिक्के आये हाथ।।
सौ की सीधी-सी रही, सदा एक ही बात,
नर्म-गर्म बिस्तर कहीं-कहीं पूस की रात।।
विरह-वेदना, हर्ष का, जब पलकों पर भार,
हर अवसर पर अश्रु ही, करें दुवाराचार।।
भावों के आवेग पर, बहते रहना रीति,
ये यायावर अश्रु हैं, इनसे कैसी प्रीति ?
अब आँसू बागी हुए, चले न कोई जोर,
नैनन से झरते रहें, रैन न देखें भोर।।
बैरी ये छिपकर सदा, करते हैं आघात,
बाहर आकर बोलते, भीतर की सब बात।।
विरह व्यथा में तप रही, तकती प्रिय की राह,
सावन काँटो सा चुभे, किसको है परवाह ?
श्याम-सलोने, साँवरे, कर दे पूरी आस|
बाट जोहता कुंज में, तेरी सावन मास।।
तपती दारुण ताप से, धरती, धरती धीर|
मेघ, मेह से हर रहे, जन मानस की पीर ।।
धरा सुनहरी हो रही, पुलकित है आकाश|
अनिल सुगंधित साथ ले, द्वार खड़ा मधुमास।।
अधरन धरे गुलाल वह, नैनन लिए अबीर|
बाट मिलन की जोहती, यमुना जी के तीर ।।
चहुँदिसि छाई हरितिमा, शीतल बहे बयार|
वर्षा ऋतु ज्यों कर रही, नगपति का श्रृंगार ।।
नदियाँ-झरने छेड़ते, मधुर-मनोहर तान|
पंछी भी सुर दे रहे, करते सुंदर गान।।
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