सुबोध श्रीवास्तव के दोहे
मन के दरवाजे पड़े, जाने कब से बंद।दुनिया भर में घूमकर, ढूँढ रहे आनंद॥
ज्यों-ज्यों बढ़ती जा रही, जीवन की रफ्तार।
कदम-कदम पर हो रही, मानवता की हार॥
बापू तेरे देश का, हुआ अजब-सा हाल।
खुशहाली सब मिट रही, जनता है बेहाल॥
धीरे-धीरे खुल रही, घोटालों की पोल।
वो अब भी बतला रहे, अपने को अनमोल॥
सुख-सुविधायें बाँटते, दुनिया के बाजार।
फिर भी मन के चैन को, मानव है लाचार॥
हर दिन बढती जा रही, महँगाई की मार।
कैसी ये सरकार है, बैठी है लाचार॥
नेता सब होते गये, दुनिया में मशहूर।
वैसे ही बेबस रहे, बेचारे मजदूर॥
ईश्वर ने मानव रचा, करने को कुछ काम।
मानव ही करने लगा, मानवता बदनाम॥
आजादी तो मिल गयी, मिला नहीं अधिकार।
पहले हम लाचार थे, अब भी हैं लाचार॥
मंचों पर सजने लगे, कविता के बाज़ार।
कविता से होने लगा, कवियों का व्यापार॥
महलों वाले चल पड़े, हैं सूरज की ओर।
बस्ती में छाया हुआ, अँधियारा घनघोर॥
महँगाई सर पर चढ़ी, जीना हुआ मुहाल।
आखिर निर्धन की चले, कैसे रोटी-दाल॥
पहली ही बरसात में, भीगा सब संसार।
ताल सरीखा हो गया, निर्धन का घर बार॥
भारत में कैसे बढ़े, हिन्दी का सम्मान।
मन पर तो छायी हुई, अंग्रेजी की शान॥
मन का इस संसार में, मिला न कोई मीत।
सबके अपने राग हैं, सबके अपने गीत॥
भारत की ये बेटियाँ, बढा रही हैं शान।
भेदभाव अब छोडक़र, उनको भी दें मान॥
नयी सदी में प्रेम के, बदले-बदले रंग।
जब तक पूरे स्वार्थ हों, तब तक उड़े पतंग॥
धन के पीछे भागता, बौराया संसार।
इसके आगे हो गए, सब रिश्ते बेकार॥
बापू तेरे देश की, है कैसी तकदीर।
आजादी तो मिल गयी, वही रही तस्वीर॥
बदल गया है वक्त भी, बदले चाल चरित्र।
कृष्ण-सुदामा से कहाँ, होते हैं अब मित्र॥
हर कोई भूला जहाँ, मानवता के काज।
ऐसे में कैसे भला, जीवित रहे समाज॥
मात-पिता का आपने, तोड़ा अगर यकीन।
कहाँ बचेगी आपके, पैरों तले जमीन॥
ये ना सोचें आपका, समय गया कुछ व्यर्थ।
जीवन में हर बात का, कुछ ना कुछ है अर्थ॥
कोई तो समझा नहीं, मानवता का सार।
जाने किस उल्लास में, झूम रहा संसार॥
जीवन के कॅनवास में, कहाँ एक से चित्र।
कभी हार दिखती हमें, कभी जीत है मित्र॥
नये जमाने का चढ़ा, ऐसा गहरा रंग।
सद्गुण पीछे रह गये, अवगुण सबके संग॥
लोकतंत्र में दोस्तो, जनता है लाचार।
चाहे ये सरकार हो, चाहे वो सरकार॥
जिसने भी जीवन जिया, अपने को पहचान।
उसमें ही जीवित अभी, दीन और ईमान॥
दावे तो हैं देश के, बदल गये हालात।
निर्धन से भी तो कभी, पूछो मन की बात॥
फैशन की इस देश में, ऐसी चली बयार।
नित्य देख लो हो रही, मर्यादा की हार॥
अच्छे दिन की आस में, हुए हाल बेहाल।
जाने इस सरकार की, कब बदलेगी चाल॥
सज्जनता से आज तक, जीती किसने जंग।
अस्त्र उठाओ, काट दो, दहशत का हर अंग॥
कोरी बातों से कभी, होता नहीं सुधार।
कहाँ देश ये जा रहा, सोचो तो सरकार॥
दुनिया भर में घूमकर, बाँट रहा है ज्ञान।
मानव तू रुक जा जरा, पहले खुद को जान॥
जिसने सागर की तरह, पाया हृदय विशाल।
दुनिया में वो ही हुआ, सबसे मालामाल॥
नजरों से नजरें मिलीं, थिरक उठी मुस्कान।
मन निर्मल हो बह चला, हार गया अभिमान॥
संबंधों को दूरियाँ, कर देतीं बरबाद।
अच्छा है जारी रहे, आपस में संवाद॥
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