डॉ. मिथिलेश दीक्षित के दोहे
कंटक पर करते रहे, पुष्प सदा विश्वास।
चुभ कर भी देते रहे, अपनी आस-सुवास।।
शूर्पणखा की धूम है, रही जानकी चीख।
झूठ कार में घूमता, सत्य माँगता भीख।।
हरियाली मिटने लगी, चकाचौंध में शाम।
आसमान को छू रहे, खोली तक के दाम।।
सुमन खिलें कंटक चुभें, जब होता है प्रात।
सुख-दुख के उपमान हैं, जैसे दिन औ' रात।।
नयनों से दिखता नहीं, फिर भी इतना ख़ास।
उगते सूरज की तरह, प्रियतम का अहसास।।
इस जंगल के छोर तक, फैली विष की बेल।
अपराधी निर्भय हुए, सच्चाई को जेल।।
मूल्य बढ़ा है वस्तु का, सभी हुए निरुपाय।
मूल्य घटा है व्यक्ति का, कैसा यह व्यवसाय।।
नदी किनारे रह रहे, फिर भी जल की आस।
रात्रि-दिवस बढ़ने लगी, ऐसी बलुही प्यास।।
दौलत से ही तोलता, मन जब चिन्तन-सार।
बोली होती खोखली, जीवन होता भार।।
प्रेम-पुजारी बढ़ चला, सहसा प्रभु की ओर।
सकल तत्व उसको लगें, बँधे प्रेम की डोर।।
मधु ऋतु के सौन्दर्य से, धरती हुई ललाम।
हल्दी जैसी धूप है, सिन्दूरी है शाम।।
थिरक उठा यह मन-चमन, फैली फागुन धूप।
निखर उठी अनुपम धरणि, देख सलोना रूप।।
लम्बे हाथों से खिंची, उनकी बड़ी लकीर।
फिर कैसे दिखती उन्हें, दीन-दुखी की पीर।।
शूर्पणखा की धूम है, रही जानकी चीख।
झूठ कार में घूमता, सत्य माँगता भीख।।
हरियाली मिटने लगी, चकाचौंध में शाम।
आसमान को छू रहे, खोली तक के दाम।।
सुमन खिलें कंटक चुभें, जब होता है प्रात।
सुख-दुख के उपमान हैं, जैसे दिन औ' रात।।
नयनों से दिखता नहीं, फिर भी इतना ख़ास।
उगते सूरज की तरह, प्रियतम का अहसास।।
इस जंगल के छोर तक, फैली विष की बेल।
अपराधी निर्भय हुए, सच्चाई को जेल।।
मूल्य बढ़ा है वस्तु का, सभी हुए निरुपाय।
मूल्य घटा है व्यक्ति का, कैसा यह व्यवसाय।।
नदी किनारे रह रहे, फिर भी जल की आस।
रात्रि-दिवस बढ़ने लगी, ऐसी बलुही प्यास।।
दौलत से ही तोलता, मन जब चिन्तन-सार।
बोली होती खोखली, जीवन होता भार।।
प्रेम-पुजारी बढ़ चला, सहसा प्रभु की ओर।
सकल तत्व उसको लगें, बँधे प्रेम की डोर।।
मधु ऋतु के सौन्दर्य से, धरती हुई ललाम।
हल्दी जैसी धूप है, सिन्दूरी है शाम।।
थिरक उठा यह मन-चमन, फैली फागुन धूप।
निखर उठी अनुपम धरणि, देख सलोना रूप।।
लम्बे हाथों से खिंची, उनकी बड़ी लकीर।
फिर कैसे दिखती उन्हें, दीन-दुखी की पीर।।
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