अशोक गीते के दोहे
सारे सपने बिक गए, जीवन के बाज़ार।
कदम-कदम काँटे मिले, पग-पग में अंगार।।
कौओ ने फिर सौंप दी, उल्लू को जागीर।
बोलो ऐसे राज की, क्या होगी तकदीर।।
नदियों के इस देश में, सूखा, भूख, अकाल।
पेड़ कटे, जंगल मिटे, ऋतुएँ पड़ी निढ़ाल।।
मुस्कानों के पंख से, उड़ी हवा में गंध।
किरण-कलम से दीप भी, लिखता ललित निबंध।।
कस्तूरी समने सजे, अंतर है बेचैन।
जाने किसको, ढूँढ़ते, व्याकुल से ये नैन।।
किया अँधेरों ने यहाँ, सूरज को बदनाम।
बिना मोल की चाँदनी, लगा रह हैं दाम।।
पत्थर-पत्थर मन हुए, शहर हुए बेजान।
आँख-आँख वट-सी लगे, बाग हुए सुनसान।।
सीने पर पाषाण के, चोट करे है मोम।
खून सना हर हाथ है, कपट भरा हर रोम।।
हवा भरी बारूद से, पानी में तेजाब।
मिट्टी में है जहर मिला, कैसे बचे गुलाब।।
ऊँची शिक्षा के लिए, बेचा सब घर-बार।
पढ़ा लिखा बेटा बना, आज पिता पर भार।।
कोयल तो खामोश है, कौये करते काँव।
कुकुरमुते उगने लगे, आया पास चुनाव।।
बापू के सपने बिके, माँ की टूटी आस।
बिना नौकरी पूत का, टूट गया विश्वास।।
आपाधापी है मची, जीवन भागम-भाग।
समय खड़ा हो देखता, कौन बुझाये आग।।
काजल की है कोठरी, जिसमें लगते दाग।
ऊपर-ऊपर राख है, भीतर-भीतर आग।।
संसद गरिमा खो रही, हुई आचरण हीन।
जोड़-तोड़ की नीति में, नेता है तल्लीन।।
भूख, गरीबी नाम पर, मिलते वोट हजार।
राजनीति के नाम से, होता है व्यापार।।
अब जुलूस जलसे बने, लोकतंत्र के खेल।
सत्ता सुख की लालसा, खूब कराती मेल।।
महँगाई के बोझ से, सबके बिगड़े हाल।
रोटी का दो जून की, सबसे बड़ा सवाल।।
गांधी तेरे देश में, हिंसा का है दौर।
झूठ, कपट, आतंक को, सहना कब तक और?
व्याकुल होकर भारती, पूछे आज सवाल।
कैस दुश्मन ने कसे, षडय़ंत्रों के जाल।।
आज हवाएँ ला रही, बारूदी संदेश।
षडय़ंत्रों के अश्व पर, बैठा मेरा देश।।
भाई-भाई से लड़े, और पिता से पूत।
ममता अपमानित हुई, तिमिर हुआ अभिभूत।।
आम, नीम को काट के, सभ्य बना इन्सान।
नागफनी की सभ्यता, घट-घट की पहचान।।
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