डॉ. मधु प्रधान के दोहे
शायद ठिठुरन को मिले, कहीं गुनगुनी छाँव।
अनजाने ही चल पड़े, पग सूरज के गाँव।।
मन तकली-सा नाचता, ख़ुद से कर संवाद।
पोनी-पोनी कत रहा, दिन नीरस बेस्वाद।।
मौन हुई है दीपिका, दीपक हुआ अधीर।
नेह बिना सब शून्य है, शेष रहे बस पीर।।
कण-कण जोड़ा पर नहीं, जोड़े मन के तार।
कटी पतंगें, तब कहा, भूल हुई हर बार।।
आँख मिलाये सूर्य से, किसमें इतनी ताब।
जीवन के हर प्रश्न का, मिलता नहीं जवाब ।।
मन मधुकर स्वर कोकिला, फूलों-सा व्यवहार।
सरगम-सी साँसें मृदुल, जीवन का अभिसार।।
लुका-छिपी का खेल है, मन में तनिक न खोट।
सिन्दूरी सूरज छिपा, फिर बदली की ओट।।
नीरवता के पृष्ठ पर, लिखे मौन आलेख।
गूँगी पीड़ा हो गयी चाल समय की देख।।
फुनगी को छूने लगी, अहसासों की धूप।
झुके अहम का दर्प तो, दिखे अलग ही रूप।।
सूरज तट पर आ खड़ा, ले किरणों का जाल।
देख सुनहरी मछलियाँ, ताल हुआ बेताल।।
बिलखी जब नन्हीं कली, काँप उठा आकाश।
दहका धरती का हृदय, धू-धू जले पलाश।।
कब धागा कच्चा हुआ, दिया न कुछ भी ध्यान।
गठरी की गाँठें खुलीं, बिखरे मोती धान।।
नीली कुहरे से पड़ी, देख सुबह का हाल।
सूरज दौड़ा हाथ में, ले किरणों का शाल।।
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