डॉ.दरवेश भारती के दोहे
मेल बढ़ाओ सर्वदा, मेल बहुत अनमोल।चप्पू बनता मेल जब, नाव रही हो डोल।।
आपद-संकट-काल में, जिन पर रक्खी टेक।
मात्र दिखावा थे सभी, संग न आया एक।।
घर-घर रावण बस रहे, राम करें वनवास।
स्नेह, दया, सुख, प्रेम की, किससे हो अब आस।।
हर नगरी, हर गाँव में, पनप रहे अवतार।
खेतों में जैसे उगें, नाहक खर-पतवार।।
कौन किसी का है सखा, कौन किसी का मीत।
अर्थ-तंत्र में अर्थ से, देखी सबकी प्रीत।।
किया राम ने वन-गमन, होना था अभिषेक।
होनी ही जब हो प्रबल, तब क्या करे विवेक।।
मिले उन्हें धन-सम्पदा, जो हों नम्र-विनीत।
दम्भी दुर्याेधन-सरिस, कभी न पाते जीत।।
पुण्य कहे जो पाप को, अवनति को उत्थान।
उबर सका संसार में, कब ऐसा इन्सान।।
करें कपट, छल, वंचना, बदलें नाना वेश।
सतत अवतरित हो रहे, घर-घर में लंकेश।।
मीन न मेख निकालिये, सबकी अपनी राह।
बैठ किनारे देखिये, तजिये थाह-अथाह।।
हर पदार्थ नश्वर यहाँ, बैठ न कुँडली मार।
रैन-बसेरा जि़न्दगी, इसपर क्या अधिकार।।
होनहार होकर रहे, लाखों करो प्रयास।
अवध कहाँ था चाहता, राम करें वनवास।।
व्यर्थ गया उपदेश सब, व्यर्थ गया सब ज्ञान।
मैं-मैं का जब उम्र-भर, तज न सके अभिमान।।
राजनीति से नीति यों, लुप्त हुई हे मीत।
बिना वसा के दूध से, ज्यों $गायब नवनीत।।
क्रूर, कुटिल, कटु, वक्र हैं, राजनीति के काम।
जर, परिवार, समाज का, कर दें काम तमाम।।
अब तो शासन-तंत्र में, खूब बढ़ा उत्कोच।
काम न सँवरे इस बिना, प्रजा रही ये सोच।।
मनसा, वाचा, कर्मणा, एक न जिसका कर्म।
उसे राजनेता समझ, यही ज्ञान का मर्म।।
वह घर स्वर्ग समान है, जहाँ नहीं है क्लेश।
पुजते हैं माता-पिता, जैसे हों देवेश।।
ज़रा-ज़रा-सी बात पर, हो मन में आवेश।
ऐसे जीने से मरण, है अच्छा दरवेश।।
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