डॉ. शिवओम 'अम्बर' के दोहे
रहें सीखते विज्ञजन, सारी उम्र हिसाब|
ढाई आखर पढ़ रखी, हमने परे किताब||
भरे कलश में देह के, क्षीर-सिन्धु-सा रूप|
बैठी है वट के तले, घूंघट काढ़े धूप||
अग-जग को बांधे मिला, उनका शासन तंत्र|
बच्चों के तुतले वचन, वशीकरण के मंत्र||
विदा हुई तो कर गई, घर को अँधा कूप|
बेटी आँगन में खिली, मार्गशीर्ष की धूप||
छलक उठा जब छंद में, मीरा का उन्माद|
आखर-आखर में बंधा, खुद ही अनहद नाद||
पोर-पोर शर से बिंधे, धीर भीष्म के वक्ष|
तन से बांधे व्याल हम, चन्दन के समकक्ष||
शब्दों में कैसे बंधे, सीता का संत्रास|
रावण ने दी वाटिका, राघव ने वनवास||
आँगन-आँगन है यहाँ, नागफनी की पौध|
लिखे कहाँ पर बैठकर, 'प्रियप्रवास' हरिऔध||
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