नीलमेन्दु सागर के दोहे
जबसे बैठा तख़्त पर, शातिर रँगा शृगाल।
काग-गिद्ध की चाँदनी, गायें हुईं हलाल।।
रात-रात भर चाँदनी, छत पर बैठ उदास।
व्यथा-व्याधि से जूझती, करती योगाभ्यास।।
गोकुल शोकाकुल हुआ, देख समय की चाल।
राधा टेरे बाँसुरी, कृष्ण बजाये गाल।।
भोग रहे हम जल-प्रलय, ओढ़ धधकती धूप।
मनमोहन सावन कुटिल, लोकतंत्र विद्रूप।।
आँगन की तुलसी मरी, घर की गयी सुगंध।
काँटे पहरेदार हैं, फूलों पर प्रतिबंध।।
आँगन में तुलसी भरी, कैक्टस हँसा सगर्व।
यह विकास की धूप है, या विनाश का पर्व।।
टुकड़ों में आँगन बँटा, हुए झरोखे बन्द।
चिन्दी-चिन्दी हो गया, जीवन का आनन्द।।
देसी बुलबुल अति मगन, गा बिलायती गीत
आज़ादी के खेल में, रही दासता जीत।।
कैसा जंगलराज यह, बाघ-शेर लाचार।
मूँछ ऐंठता तख़्त पर, शातिर रँगा सियार।।
सपनों में खिलते रहे, चाहत के गुल लाल।
नींद खुली तो रो पड़ी, ठूँठ डाल कंगाल।
मन की उज्ज्वल चाँदनी, हो जायेगी स्याह।
पिये अमावस की सुरा, बेसुध सिन्धु अथाह।।
नया पुरातन से नहीं, करता सही सलूक
देख तनी अलमारियाँ, दुबक गया सन्दूक।।
मधुर बोल की डाल पर, खिलें झूठ के फूल।
हरियाली ओढ़े खड़े, नागफनी के शूल।।
आँधी-झक्कड़ में खड़े, हँसते ताड़-खजूर।
बौर आम के टूट कर, गिरने को मज़बूर।।
चला रात भर प्रात में, बेसुध सोया पौन।
दलित दूब की आँख से, आँसू पोछे कौन।।
आँधी जश्न मना रही, सन्नाटे को जीत।
शान्त सरोवर की सतह, अकुलाती भयभीत।।
तेवर बदला काल का, दुख जन्मा सुख बीच।
वहशी हवा सुगामिनी, सरि को रही उलीच।।
यह दुनिया ख़ुद ही बनी, या यह सब नट खेल।
जहाँ श्रवण शुक खा रहे, औचक तीर गुलेल।।
आहत पर साँसें विकल, तन-मन दुखद थकान।
कौन कहे सुरख़ाब की, कैसी रही उड़ान।।
डूबा मृगजल में विवश, आग्रीवा घर-द्वार।
आश्वासन के मेघ में, गरज रही सरकार।।
मधुछत्ता सूखा पड़ा, रहा न गुंजन नेह।
मृग मरीचिका ज़िन्दगी, तृषावन्त मधुमेह।।
हमने काँटे छाँटकर, रोपी पादप डाल।
सूखी टहनी फूल के, सपने हुए हलाल।।
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