देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' के दोहे
जुगनू कहता दीप से, बजा-बजाकर तूर्य।
अपने-अपने क्षेत्र के, हम दोनों हैं सूर्य।।
तुम आये थे स्वप्र में, कहने अपनी बात।
हमने खोले होंठ जब, तभी ढल गई रात।।
शब्दों की जादूगरी, श्लेष, यमक, अनुप्रास।
इतने भूषण लादकर, कविता हुई उदास।।
अपने-अपने क्षेत्र के, हम दोनों हैं सूर्य।।
तुम आये थे स्वप्र में, कहने अपनी बात।
हमने खोले होंठ जब, तभी ढल गई रात।।
शब्दों की जादूगरी, श्लेष, यमक, अनुप्रास।
इतने भूषण लादकर, कविता हुई उदास।।
भाषा में जब से मिला, बिम्बों का नेपथ्य।
काव्यमंच पर नाचते, नंगे होकर तथ्य।।
काव्यमंच पर नाचते, नंगे होकर तथ्य।।
खींच रहा क्यों रेत पर, तू पानी की रेख।
सच्चे दिल से भी कभी, हमें बुलाकर देख।।
सच्चे दिल से भी कभी, हमें बुलाकर देख।।
क्या तूने भी था किया, सच्चे दिल से प्यार।
या हमदर्दी की रही, सिर्फ तुझे दरकार।।
या हमदर्दी की रही, सिर्फ तुझे दरकार।।
हंस इन दिनों बन गए, बगुलों के उपमान।
पटबिजनों के संग हुआ, सूरज का गुणगान।।
पटबिजनों के संग हुआ, सूरज का गुणगान।।
कहाँ-कहाँ मन उम्रभर, भटका आठों याम।
कहाँ मालवी रात वो, कहाँ अवध की शाम।।
कहाँ मालवी रात वो, कहाँ अवध की शाम।।
शहनाई बजती रही, कहीं रातभर दूर।
और हमें करती रही, रोने को मजबूर।।
और हमें करती रही, रोने को मजबूर।।
झूठे रिश्तों को लिया, क्यों हमने सच मान?
कब हम सच्चे मित्र की, कर पाये पहचान।।
नदी बिठाकर नाव में, तैर गये पाषाण।
चींटी चढ़ी पहाड़ पर, पढ़ती गरुड़ पुराण।।
हंस इन दिनों बन गये, बगुलों के उपमान।
पटबिजनों के संग हुआ, सूरज का गुणगान।।
मरुथल को जिस पर रहा, आजीवन विश्वास।
नदी वही आ$िखर चली, अतल सिंधु के पास।।
शहर-शहर में आपने, सर्विस कर श्रीमान।
रहने को हर शहर में, बनवा लिये मकान।।
इनको उनको छोडक़र, मुझ पर ही हर बार।
क्रूर नियति करती रही, अपना कुटिल प्रहार।।
थामा उसने मंच पर, माइक अपने हाथ।
वक्ता चुप बैठे रहे, वहाँ झुकाये माथ।।
आधे मन से ही रहा, वो दुनिया के संग।
किसने जाना अन्त तक, उसका असली रंग।।
क्यों न सहज रह पा सके, पल भर को भी यार।
कवि होकर भी यों मिले, ज्यों हो नाटककार।।
उसकी इच्छा है यही, बुढ़ी माँ बच जाय।
उसी अकेले को मिले, हर भाई का दाय।।
उसे न फुरसत मिल सकी, दो दिन को भी हाय।
रोते-रोते चल बसी, कल दुनिया से माय।।
शहनाई बजती रही, कहीं रातभर दूर।
और हमें करती रही, रोने को मजबूर।।
हासिल हो पाया नहीं, उनका हमें नियाज़।
अर्से से सुनते रहे, हम जिनकी आवाज़।।
झूठे रिश्तों को लिया, क्यों हमने सच मान।
कब हम सच्चे मित्र की, कर पाये पहचान।।
क्या तूने भी था किया, सच्चे दिल से प्यार।
या हमदर्दी की रही, सि$र्फ तुझे दरकार।।
घटनाओं की लाश पर, सिर धुनता इतिहास।
जिसको पढक़र देवता, होते रहे उदास।।
बैठा रह फुटपाथ पर, देख महल के ख़्वाब।
उँगली में कांटे चुभा, आँखों खिला गुलाब।।
खींच रहा क्यों रेत पर, तू पानी की रेख।
सच्चे दिल से भी कभी, हमें बुलाकर देख।।
कहाँ-कहाँ मन उम्रभर, भटका आठों याम।
कहाँ मालवी रात वो, कहाँ अवध की शाम।।
कब हम सच्चे मित्र की, कर पाये पहचान।।
नदी बिठाकर नाव में, तैर गये पाषाण।
चींटी चढ़ी पहाड़ पर, पढ़ती गरुड़ पुराण।।
हंस इन दिनों बन गये, बगुलों के उपमान।
पटबिजनों के संग हुआ, सूरज का गुणगान।।
मरुथल को जिस पर रहा, आजीवन विश्वास।
नदी वही आ$िखर चली, अतल सिंधु के पास।।
शहर-शहर में आपने, सर्विस कर श्रीमान।
रहने को हर शहर में, बनवा लिये मकान।।
इनको उनको छोडक़र, मुझ पर ही हर बार।
क्रूर नियति करती रही, अपना कुटिल प्रहार।।
थामा उसने मंच पर, माइक अपने हाथ।
वक्ता चुप बैठे रहे, वहाँ झुकाये माथ।।
आधे मन से ही रहा, वो दुनिया के संग।
किसने जाना अन्त तक, उसका असली रंग।।
क्यों न सहज रह पा सके, पल भर को भी यार।
कवि होकर भी यों मिले, ज्यों हो नाटककार।।
उसकी इच्छा है यही, बुढ़ी माँ बच जाय।
उसी अकेले को मिले, हर भाई का दाय।।
उसे न फुरसत मिल सकी, दो दिन को भी हाय।
रोते-रोते चल बसी, कल दुनिया से माय।।
शहनाई बजती रही, कहीं रातभर दूर।
और हमें करती रही, रोने को मजबूर।।
हासिल हो पाया नहीं, उनका हमें नियाज़।
अर्से से सुनते रहे, हम जिनकी आवाज़।।
झूठे रिश्तों को लिया, क्यों हमने सच मान।
कब हम सच्चे मित्र की, कर पाये पहचान।।
क्या तूने भी था किया, सच्चे दिल से प्यार।
या हमदर्दी की रही, सि$र्फ तुझे दरकार।।
घटनाओं की लाश पर, सिर धुनता इतिहास।
जिसको पढक़र देवता, होते रहे उदास।।
बैठा रह फुटपाथ पर, देख महल के ख़्वाब।
उँगली में कांटे चुभा, आँखों खिला गुलाब।।
खींच रहा क्यों रेत पर, तू पानी की रेख।
सच्चे दिल से भी कभी, हमें बुलाकर देख।।
कहाँ-कहाँ मन उम्रभर, भटका आठों याम।
कहाँ मालवी रात वो, कहाँ अवध की शाम।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें