डॉ. हरि प्रकाश श्रीवास्तव (अवधी हरि) के दोहे
माँस नोचने में अधिक, हमसे मानव सिद्ध।
यही सोचकर हो गये, शायद ग़ायब गिद्ध।।
हर दिन छोटी हो रही, जीवन की कुछ बात।
बिल्कुल पेन्सिल की तरह, इसकी भी औक़ात।।
शेर कहो तो आदमी, ख़ुद पर करता नाज़।
और बोल दो जानवर, तो होता नाराज़।।
राह कँटीली तो सफ़र, जल्दी होगा पार।
बढ़ जाती है पाँव की, काँटों पर रफ़्तार।।
लोगों के है प्यार में, वैसा ही अब खोट।
असली नोटों में छुपे, जैसे नक़ली नोट।।
आँखों में आँसू भरे, होठों पर मुस्कान।
नाम इसी सौभाग्य का, शायद कन्यादान।।
शोर सदा सिक्के करें, नोट रहें ख़ामोश।
जिनकी क़ीमत कम वही, खोते अपना होश।।
महलों का कौआ लगे, इस दुनिया को मोर।
भूखा मगर ग़रीब का, बच्चा लगता चोर।।
मीठे फल की ज़िन्दगी, कितनी है दुश्वार।
वार पत्थरों के सहें, या चाक़ू की धार।।
मोती-माला की सभी, करते हैं तारीफ़।
कोई तो अनुभव करे, धागे की तकलीफ़।।
राजनीति भी हो गयी, अब बच्चों का खेल।
पल में झगड़ा-दुश्मनी, पल में यारी-मेल।।
बाघ-शेर के सामने, शक्ति प्रदर्शन व्यर्थ।
युक्ति लगाओ तब वहाँ, शायद निकले अर्थ।।
बेजा रेगिस्तान में, है हंसों का ख़्वाब।
हंस वहीं रहते जहाँ, धरती पर है आब।।
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