ब्रजनाथ श्रीवास्तव के दोहे
भोर उलूकों की हुई, लड़ा रहे हैं चोंच।
बुलबुल के तन पर दिखी, इतनी बड़ी खरोंच।।
नंदन कानन में बसें, तरह-तरह के बाज़।
माली को अब हो रहा, लोकतंत्र पर नाज़।।
लोकतन्त्र बौना हुआ, गूँगा हुआ समाज।
दुःशासन के हाथ में, द्रुपदसुता की लाज।।
समय-यक्ष है कर रहा, नित-नित नये सवाल।
प्रश्नों का पथ मोड़ता, धर्मराज वाचाल।।
हे नट! तेरे राज में, जादू-भरा चिराग।
जिधर नज़र तेरी गयी, उधर आग ही आग।।
चूहे उछलें पेट में, नहीं हाथ को काम।
भूख, उदासी, बेबसी, सब कुछ अपने नाम।।
सूना-सूना रह गया, इस अषाढ़ का द्वार।
सावन की दहलीज़ पर, गाते मेघ मल्हार।।
हमने नदियाँ रोक दीं, नंगे किये पहाड़।
नीर-वायु के बिन सखे, जीवन हुआ उजाड़।।
बग्घी वाले लूटते, लुटते पैदल लोग।
युगों-युगों से पल रहा, मात्र एक ही रोग।।
मिला अँधेरे का नहीं, कोई साझीदार।
मगर उजालों के लिए, रोज़ हुई तक़रार।।
कलियों की चीखें बढ़ीं, माली-कुल है मौन।
लाज़िम ज़िम्मेदार अब, लोकतन्त्र में कौन।।
उसी ताक में गिद्ध फिर, हों लाशों के ढेर।
धीरे-धीरे बो रहा, इन्द्रप्रस्थ अंधेर।।
कभी बाढ़, सूखा कभी, आग कभी भूडोल।
भूखी धनिया बाँचती, रोटी का भूगोल।।
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