देवीचरण सिंह ‘पथिक’ के दोहे
उनकी बातों का ‘पथिक’, कैसे करें य$कीन?जो पग-पग दिखला रहे, कपट भरे सब सीन।।
नर से नारायण बनें, सत्कर्मो से लोग।
इन्साँ से हैवाँ बनें, दुष्कर्मों से लोग।।
उसको ही मिलती खुशी, नहीं साँच को आँच।
दुख-दर्दों के बीच में, रहा खुशी जो बाँच।।
आज लफंगे घूमते, धर साधू का वेश।
बदली मानवता ‘पथिक’, बदला हर परिवेश।।
सत्य वहीं मारा गया, औंधे मुँह श्रीमान।
‘सत्यमेव जयते’ जहाँ, लिखा मिला श्रीमान।।
‘सत्यमेव जयते’ ‘पथिक’, मिला अधिक कमजोर।
झूँठ शान से गर्ज कर, करे जुल्म घनघोर।।
अच्छी खासी बात को, तूल न दो श्रीमान।
पल भर में कर $गर्क दे, सुख का सुखद मचान।।
कभी किसी भी बात को, नहीं दीजिए तूल।
पल भर में अनुकूल हो, जाता प्रतिकूल।।
उन बातों को राखिए, आप हमेशा गुप्त।
जिसके खुलने से सखे! मर्यादा हो लुप्त।।
दुखद रैन के अंत में, होता सुखद प्रभात।
पन्छी तूफाँ भूलकर, नीड़ बनाते भ्रात।।
‘पथिक’ किसे अपना कहें, लिया परख कर देख।
स्वर्ण कलश में भी मिली, विष सम काली रेख।।
‘पथिक’ यहाँ पर सिर फिरे, हैं कुछेक इन्सान।
शुभ कर्मों में डालते, बहुत अधिक व्यवधान।।
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