कपिल कुमार के दोहे
अस्पताल में हो गई, उसकी खाली जेब|
लाया था वह बेचकर, पत्नी की पाजेब||
चलते-चलते जिंदगी, थक जाती जिस रोज|
नींद बुलाने के लिए, खाती है कम्पोज||
याद रहा दो ग्रन्थ हैं, गीता और कुरान|
लेकिन उनमें क्या लिखा, भूल गया इंसान||
साँसों से है ज़िन्दगी, पैरों से रफ़्तार|
आँखों से है रौशनी, दिल से होता प्यार||
धन की रक्षा के लिए, बनता है संदूक|
उसे तोड़ने के लिए, बनता है बन्दूक||
पल-पल पलटी मारते, मौसम और मिजाज़|
राजा भी जाने नहीं, कब उतरेगा ताज||
रोटी चावल दाल पर, महंगाई की मार|
बनिया भी देता नहीं, कोई चीज उधार||
उलटी गंगा बह रही, ठंडी लगती धूप|
अब बरगद की छाँव में, जल जाता है रूप||
दान भिखारी दे रहा, भीख माँगता भूप|
छलनी अब फटका करे, छाना करता सूप||
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