हुए सघन जब घन धरा, मचल उठी जलधार।
रुग्ण नदी फिर जी उठी, करने को विस्तार।।
मनगढ़न्त इतिहास से, फैलाकर भ्रमजाल।
संघर्षों की पीठ पर, क़ाबिज़ हुए दलाल।।
हो भविष्य स्वर्णिम सफ़ल, जब-जब देखे ख़्वाब।
आँख खुली तो हाथ थे, झुलसे हुए गुलाब।।
ओढ़ हताशा देखिए, अपने चारों ओर।
मरी हुई संवेदना, ज़िन्दा आदमखोर।।
रिश्तो की 'कृति' पर यहाँ, अधकचरे 'अनुवाद'।
'भाव' बोलते और कुछ, 'शब्दों' का कुछ स्वाद।।
बैठ गयी हड़ताल पर, इक भूखी उम्मीद।
अख़बारों में जश्न है, आज मनेगी ईद।।
फ़र्ज़ी तहरीरें यहाँ, लिख झूठे इतिहास।
उभरे धूसर हर्फ़ में, खोजें अलग मिठास।।
रिश्ते जब हों लिजलिजे, जीना करें मुहाल।
सड़े फलों को डालियाँ, रखती नहीं सँभाल।।
गमलों की ठहरी नियति, जीवन भर संत्रास।
सुबह-शाम पानी पिएँ, तब भी क़ायम प्यास।।
तट पर बगुला तप करे, जल में सहमी मीन।
साज़िश करने को इधर, खोजे नयी ज़मीन।।
मोमबत्तियों की व्यथा, समझे कब इन्सान।
हिन्दू-मुस्लिम बन गये, श्रद्धांजलि अभियान।।
छूँछे डिब्बे, ख़त्म था, आटा, चावल-दाल।
माँ ने बच्चों के लिए, आँसू दिये उबाल।।
भीड़तंत्र ख़ुद न्याय, जज, खुलेआम उन्माद।
नफ़रत के इस वृक्ष को, मिले कहाँ से खाद।।
मेघों से झरने लगीं, जब बूँदें भरपूर।
हाथ नदी के आ गये, लड्डू मोतीचूर।।
नींद सफ़ल फुटपाथ पर, किन्तु ख़्वाब बेनूर।
सुबह हुई तो चल दिये, खटने को मज़दूर।।
इम्तिहान का दौर है, समय बड़ा विद्रूप।
किन्तु ग्रहण के बाद ही, खिले चाँद का रूप।।
सर्द रात में पाँव जब, झेल चुके संत्रास।
पढ़ने को आतुर दिखे, जूते का इतिहास।।
मन आकुल तन प्रज्ज्वलित, किन्तु शीत सम्बंध।
वक़्त उड़ाकर ले गया, युग्म पंखुरी-गंध।।
लगे शेर भी मेमना, और हिरन ख़ूँखार।
अलग-अलग चश्मा करे, अलग-अलग व्यवहार।।
जवाँ हो रही सभ्यता, तोड़ समय का खोल।
आग बुझाते लोग अब, डाल-डाल पेट्रोल।।
अँधियारे की सभ्यता, रही समय को बाँच।
क़त्ल रौशनी का हुआ, दीपक झेले जाँच।।
शनिवार, 14 जनवरी 2023
नज़्म सुभाष के दोहे
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
!—end>!—start>
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें