कृष्ण स्वरूप शर्मा ‘मैथिलेन्द्र’ के दोहे
सबसे पहले अंक को, खोजा हिन्दुस्तान।हिन्दी अंक विहीन हो, खोती निज पहचान।।
खुद ही पारित कर रहे, खुद का ही प्रस्ताव।
लूट रहे अब देश को, सुनता कौन सुझाव।।
मनचाहा वेतन बढ़ा, कोई नहीं विरोध।
सुनता कौन गरीब की, रोटी का अनुरोध।।
ऐसी इनकी नीतियाँ, खाली पेट गरीब।
बाहर गेहूँ सड़ रहा, भूखे को न नसीब।।
हमें मिले दो हाथ हैं, करने को कुछ काम।
संभावित शुभ फल मिले, अगर करें सद्काम।।
चापलुसी भगवान की, करो नहीं इन्सान।
अच्छे कर्मों का सुफल, मिलता है वरदान।।
आये थे बिन नाम के, जगत दिया इक नाम।
याद करे जग नाम यह, ऐसा कर कुछ काम।।
नेता जी बस एक हैं, वे हैं वीर सुभाष।
अब नेता का अर्थ है, छटा एक बदमास।।
नदिया सूखी दूध की, बहने लगी शराब।
प्रेम भाव सद्भाव का, पानी हुआ खराब।।
गाय चरायें कृष्ण जी, कहलाते गोपाल।
समझें इसके रहस्य को, मत अवसर को टाल।।
पानी रखिये पास में, कह कर गये रहीम।
बेपानी मानव हुआ, आपस में तकसीम।।
देना है ईश्वर अगर, दे हमको सद् ज्ञान।
ताकि हमें होती रहे, कर्मों की पहचान।।
पिया मिलन का आ गया, ऐसा अद्भुत-योग।
काम-शास्त्र पढक़र करें, नूतन नित्य प्रयोग।।
खुद ही करते छेद हैं, खुद ही खेते नाव।
सभी लोग अजमा रहे, अपने-अपने दाव।।
दोहा इक बहती नदी, मेकलसुता सा नीर।
जिसको पीकर हो गए, साधू संत कबीर।।
ढूँढ़ रहे हैं छाँव को, भू पर जलते पाँव।
चला गया जाने कहाँ, बरगद लेकर छाँव।।
अपने चूल्हे से लगी, अपने घर में आग।
बुझा रहा कोई नहीं, सब मिल खेलें फाग।।
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