सतीश चंद्र शर्मा 'सुधांशु' के दोहे
अंधों की नगरी यहाँ, काने हैं सरदार।फिर-फिर बाँटें रेवड़ी, अपनों को हर बार।।
पिंजड़े के तोता बने, सरकारी अनुभाग।
जैसा ढपली बोलती, वैसा गाते राग।।
बिन पानी आया हुआ, खेतों बीच बसंत।
होरी बैठा सोचता, कब तक होगा अंत।।
पढ़ा नहीं 'गोदान' जो, और पूस की रात।
क्या समझेगा वह भला, होरी के हालात।।
पैर बिबाई से सजे, स्वेद सजा है माथ।
बयाँ कहानी कर रहे, ठेठों वाले हाथ।।
गेहूँ की बाली पकी, सरसों फूली खेत।
जैसे मीलों तक बिछी, पीली-पीली रेत।।
तख़्त निरंकुश हो गया, नीति नियम सब मूढ़।
जनता बैठी सोचती, किंकर्तव्यविमूढ़।।
ऊँचे भवनों का बहुत, देखा छोटा रूप।
गर्वित होते रोककर, झोपड़ियों की धूप।।
मिट्टी का ढेला कहे, मैं भी हूँ पाषाण।
थोड़ी सी बूँदें पड़ीं, त्याग दिये निज प्राण।।
जो कल तक संक्षिप्त थे, होने लगे विराट।
जब से भ्रष्टाचार की, नयी लगी है हाट।।
सम्भव है इस देश में, ऐसा ही व्यवहार।
फ़सल उजाड़ी साँड़ ने, पकड़े गये सियार।।
पूरब के घर में हुआ, जब पश्चिम का वास।
नागफनी ने दे दिया, तुलसी को वनवास।।
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