कितने ओछे हो गये, मौसम के क़ानून।
करने लगे गुलाब भी, अब तितली का ख़ून।।
अँधियारा चाकू लिये, करता बन्द जुबान।
फिर चोरों की भीड़ में, दीपक लहूलुहान।।
जो भी आता, टाँगता, बदलावों के चित्र।
किन्तु व्यवस्था का कभी, बदला नहीं चरित्र।।
सबने अपना सुख जिया, सबको हुई थकान।।
माँ गौरैया की तरह, भरती रही उड़ान।।
आँखें अंधी हो गयीं, ताक-ताक आकाश।
कर्तव्यों से बेख़बर, बादल फेटें ताश।।
दावा करें विकास का, चारों ओर वज़ीर।
रेत निचोड़े गाँव में, धनिया की तक़दीर।।
सूखे की सब अर्ज़ियाँ, बादल फेंके फाड़।
बैसाखी पर प्यास है, पानी चढ़ा पहाड़।।
चिड़िया घर लौटी नहीं, करते रहे तलाश।
सन्नाटे की गोद में, मिली हताहत लाश।।
फटे हुए सम्बन्ध में, कैसे लगता जोड़।
तुम तेज़ी से मुड़ गये, जब भी आया मोड़।।
टुकड़ा-टुकड़ा चाँदनी, चुटकी-चुटकी धूप।
तिनके-तिनके से बना, कच्चे घर का रूप।।
रूप बदलते गाँव में, लोक-रंग बेहाल।
मोबाइल में खुल गये, कई सिनेमा हाल।।
पुश्तैनी व्यवसाय को, हाथ जोड़ कर रात।
सुबह नौकरी के लिए, शहर चला देहात।।
कैसे धरें सँभाल कर, मोती जड़े लगाव।
ताका-झाँकी कर रहे, खिड़की से अलगाव।।
कैसे खेलें रोशनी, कैसे खेलें फाग।
लगी हुई जब पेट में, दो रोटी की आग।।
छिपती कहाँ उदासियाँ, कब छिपते दिन-रैन।
अन्तर्मन की व्यंजना, करते भीगे नैन।।
जब सत्ता करने लगी, शब्दों को भयभीत।
शब्दों ने भी ठान ली, होगी ज़िद की जीत।।
नये रंग में रँग लिया, मौसम ने भी गात।
तितली करती फूल से, मोबाइल पर बात।।
कैसे अँधियारा हटे, सील गयी है आग।
ठण्डे बस्ते में पड़े, सारे दीपक-राग।।
पहले पन्ने पर मिला, सूखा हुआ गुलाब।
आँख मूँद पढ़ते रहे, घंटों खुली किताब।।
मन कितना चालाक है, पहन जोगिया वस्त्र।
बेच रहा है धर्म को, खुले आम सर्वत्र।।
पत्र-पत्रिका का किया, अन्तिम बार हिसाब।
मोबाइल के दौर में, पढ़ता कौन किताब।।
इन्द्रधनुष बोते रहे, बचपन की दहलीज।
बोया नहीं चरित्र का, खरा एक भी बीज।।
रविवार, 15 जनवरी 2023
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आदरणीय रघुविन्द्र यादव जी नमस्कार, आपने दोहा कोश जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ में मेरी रचनाशीलता को सम्मिलित कर गौरवान्वित किया। कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ ।निश्चित ही दोहा कोश साहित्य जगत में अपना मौलिक एवं मनोरम स्थान बनाएगा। आपका अप्रतिम
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