महेन्द्र जैन के दोहे
डरता है तू कर्म से, चाहे सुख भंडार।कैसे होंगे सोच फिर, सब सपने साकार।।
पैसों से है दोस्ती, पैसों से सम्बन्ध।
सच मानों यह जि़ंदगी, पैसों का अनुबन्ध।।
जिससे भी जितना मिले, ले लीजे दिल खोल।
मिले नहीं बाज़ार में, प्रेम बड़ा अनमोल।।
दुर्घटना, भूकम्प या, हत्या, हिंसा, क्लेश।
आ जाती है मौत भी, बदल बदल कर भेष।।
जलती है तंदूर में, सहती अनगिन पीर।
देख ज़रा मां भारती, नारी की तकदीर।।
गांधी तेरे देश का, रूदन करे जनतंत्र।
अब तो आकर आप ही, फूंको कोई मंत्र।।
कष्टों की जब धूप ने, व्याकुल किया अपार।
माँ का आंचल बन गया, शीतल मंद बयार।।
पाना है बैकुंठ तो, मत ना सोच विचार।
माँ के ही तो चरण हैं, स्वर्ग-धाम के द्वार।।
कुर्सी पाते ही लगा, नेता जी को रोग।
घर की रोटी छोडक़र, खाएँ छप्पन भोग।।
जनता की चिंता नहीं, नहीं देश का ध्यान।
नेता को बस चाहिए, कुर्सी औ’ सम्मान।।
जल जीवन का स्त्रोत है, जल अमृत की धार।
जल की परिभाषा यही, जल है प्राणाधार।।
दूषित है पर्यावरण, शुष्क खेत, खलियान।
कैसे बिन ताजी हवा, जीएगा इंसान।।
तूफानों के बीच जो, करते नैया पार।
मंजिल उनके चूमती, $कदमों को सौ बार।।
मिट्टी की सोंधी महक, बरगद की वो छाँव
हमको तो आकर मिली, अपने प्यारे गाँव।।
जीवन है इंसान का, कांटों का मैदान।
रो-रो कर मूरख जिए, हँस-हँस कर विद्वान।।
बेटी की किलकारियाँ, जब गूंजे घर-द्वार।
लग जाता चहुँ ओर ही, खुशियों का अम्बार।।
नहीं वतन से है बड़ा, कोई भी इन्सान।
होती है बस देश से, मानव की पहचान।।
जो समाज करता नहीं, नारी का सम्मान।
हो सकता उस देश का, कभी नहीं उत्थान।।
देश बसा है गाँव में, मगर गाँव बेहाल।
कैसे होगा देश का, उन्नत जग में भाल।।
नून, तेल में खो गई, कहीं सुबह औ’ शाम।
अरी जि़ंदगी तू बता, तेरा पता मुक़ाम।।
बेटी तो वरदान है, मत समझो अभिशाप।
हत्यारा है भोगता, जीवन भर संताप।।
चट्टानों सी ठोस हैं, कोमल फूल समान।
कभी डरें ना बेटियां, आंधी या तूफान।।
विद्वानों ने है सदा, दिया यही संदेश।
आपस में यदि एकता, एक रहेगा देश।।
घर मन्दिर की देवियां, पूजा का सामान।
साधक की हैं साधना, नारी सुभग, सुजान।।
नारी अब अबला नहीं, सबला, सजग, सुजान।
निज बल, ज्ञान, विवेक से, जीते हर मैदान।।
किसने था सोचा भला, ये भी होगा हाल।
जनता ही जनतंत्र में, होगी यूं बेहाल।।
रोज-रोज की रैलियां, रोज-रोज हड़ताल।
ये है अपने देश के, लोकतंत्र का हाल।।
पिछड़ गए यदि गांव तो, पिछड़ेगा फिर देश।
रखना है संभाल कर, गाँवों का परिवेश।।
पेड़ कटे जंगल घटे, धरा हुई बेजान।
बिन वर्षा सूखे पड़े, खेत और खलिहान।।
रात दिवस सहते रहे, पेड़ सभी आघात।
महानगर ने लूट ली, जंगल की सौगात।।
बदल गए मौसम सभी, बदल गए हालात।
देखो अब होती नहीं, सावन में बरसात।।
सुबह-शाम जब मिल रहे, रोटी के दौ कौर।
सोच भला क्या चाहिए, इससे ज्यादा और।।
हिन्द अभी भी भोगता, कैसा ये संत्रास।
हिन्दी अब भी है बनी, अंग्रेजी की दास।।
पतझड़ की ऋतु देखकर, क्यों तू हुआ उदास।
मत तू हारे हौसला, आएगा मधुमास।।
निर्माता है सृष्टि की, जीवन का वरदान।
मोती सम हैं बेटियां, गल माला की शान।।
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