डॉ. कृष्णलता यादव के दोहे
आँगन-आँगन भूख है, गली-गली में प्यास।खेत और खलिहान भी, भोग रहे संत्रास।।
खुशियों के पंछी उड़े, सूनी मन की डाल।
आँखें भर-भर आ रहीं, सुन हल्लन का हाल।।
आग लगी जब महल में, कुटिया लाई नीर।
महल तमाशा देखता, पड़ी कुटी पर भीर।।
सत्ता की छाया मिली, मनचाहे सुख लूट।
पल-पल बदले करवटें, राजनीति का ऊँट।।
भारी से भारी हुई, नेताजी की जेब।
ऊँचे दामों बिक रहे, धोखा, झूठ, $फरेब।।
पहिया घूमा काल का, पुजने लगे लठैत।
संत रूप में घूमते, कितने चोर डकैत।।
लोकतन्त्र का हो रहा, भरी सभा में खून।
अन्धे औ’ बहरे लगें, अपने सब कानून।।
पवन ले गई छान को, कल्लू है बेचैन।
उसको घायल कर रहे, धनीराम के बैन।।
खेतों ने साजिश रची, खाली हैं खलिहान।
गहमागहमी देखकर, पागल हुआ किसान।।
कान लगाकर सुन रहे, बालक, हाहाकार।
हिंसा, लूट, डकैतियां, टी.वी.पर भरमार।।
रगड़-रगड़ कर धो लिया, मैला मिला लिबास।
उलटी गंगा बह रही, पनघट को है प्यास।।
मंदिर मस्जिद पर बढ़े, जब से नए विवाद।
लोग दलाली खा रहे, झगड़ों को देे खाद।।
हर खदान देती नहीं, हीरे, मोती, लाल।
सदा एक सी कब रहे, धरती की भी चाल।।
कान काटते जा रहे, कल के जनमे लाल।
आगे-आगे देखना, होता है क्या हाल।।
घर-घर में इंसान हैं, डेरे-डेरे संत।
छली फरेबी सिलसिले, फिर भी क्यों बेअंत?
आँधी है बदलाव की, होते उल्टे काम।
बाबुल को बनवास दे, कलियुग वाला राम।।
कलम उठाए घूमते, अनपढ़ निपट गँवार।
जब तब आए हाथ में, साहित्यिक उपहार।।
बिना मौत मारा गया, इक सच्चा इंसान।
मारनहारे घूमते, निर्भय सीना तान।।
महानगर को चल दिया, सकुचाता सा गाँव।
तिरछी नजरें घूरती, लौटा उलटे पाँव।।
पाप कमाई नित करें, खूब मनावें मोद।
लाखों बातें पूछती, सूनी-सूनी गोद।।
छोटी सी इक बात से, बिखर गया परिवार।
बूढ़ी अम्मा पूछती, किसने की तकरार?
खडग़ उठाई एक ने, दूजा साधे तीर।
माँ ‘बेचारी’ सोच में, कोस रही तकदीर।।
भरवाँ-भरवाँ सह रहे, बिना बात आघात।
थोथे से यह जग डरे, कैसी अद्भुत बात।।
बाजारूपन भा गया, चली दुरंगी चाल।
‘असली’ दुबका देखता, बिकता नकली माल।।
कहे वतन से प्यार है, मगर विदेशी ठाठ।
हुई ज़रूरत देश को, लगा मारने काठ।।
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