डाॅ. बिपिन पाण्डेय के दोहे
चाहे जितनी दूर हो, पर लगती माँ पास।
दुनिया उसको मानती, प्यार भरा अहसास।।
माँ की ममता का बहुत, याद आ रहा गाँव।
मिलती थी हमको जहाँ, नित आँचल की छाँव।।
केवल माता की दुआ, मेरा करे बचाव।
दुनिया बैरी दे रही, बस घावों पर घाव।।
माँ की तो हर बात में, रहता मेरा जिक्र।
करती है वह सर्वदा, ज़ाहिर अपनी फिक्र।।
उनकी कहीं समाज में, कभी न होती कद्र।
बिना विचारे जो सदा, बोलें बात अभद्र।।
चलकर आई है सदा, मंजिल उसके पास।
अपने ऊपर है रखा, जिसने भी विश्वास।।
करते बड़े बुजुर्ग सब, सदा यही ताकीद।
हार देखकर भूल से, मत छोड़ो उम्मीद।।
रखता हो इस जगत में, चाहे जो पहचान।
कुदरत के आगे विवश, दिखता है इंसान।।
जब तक जीवन शेष है, और चल रही साँस।
दुनियादारी की नहीं, कभी निकलती फाँस।।
नहीं किसी की पोंछता, कोई गीली कोर।
बैठे परहित का सभी, मचा रहे हैं शोर।।
नव्य काव्य चाहे दिखे, जितना भी दमदार।
बिना कसौटी पर कसे, आता नहीं निखार।।
राजनीति का हो रहा, देखो बंटाधार।
थप्पड़ जूता लात की, यहाँ हुई भरमार।।
चाटुकारिता का हुनर, रहा न अपने पास।
कोई भी आका मुझे, नहीं मानता खास।।
देख राह की मुश्किलें, जब भी हुआ अधीर।
आँसू आकर ले गए, दिल की सारी पीर।।
चाहे जितना हो रखा, जोड़ तोड़ कर माल।
खाते हैं फिर भी सभी, केवल रोटी-दाल।।
निर्धन और अमीर में, बँटा भले संसार।
सबके घर में एक-सा, रोटी का आकार।।
छत पर जाने के लिए, सीढ़ी आती काम।
गढ़ना पड़ता पथ स्वयं, यदि हो गगन मुकाम।।
सदा बनाते जो भवन, श्रम करके निज हाथ।
उनके हिस्से में प्रभो, क्यों आता फुटपाथ।।
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