म. ना. नरहरि [नरहरि अमरोहवी] के दोहे
नयन माँगे आईना, साँसें मंगल गीत।
थिरकन सारी देह में, चितवन ढूँढ़े मीत।।
कही भोर ने धूप से, कानों में इक बात।
रोती रहती शाम से, ठंडी-ठंडी रात।।
शबनम हँसे गुलाब में, बूँद-बूँद में आब।
राह देखता धूप की, ठिठुरा चुप तालाब।।
भीगा मौसम भोग कर, करें ठिठोली ताल।
अब वह पीपल मर गया, कल था जो कंकाल।।
उबटन घोला शाम ने, खूब नहायी रैन।
नदी हुई नवयौवना, बूढ़ा पुल बेचैन।।
अनहोनी होकर रही, समय बड़ा बलवान।
आँसू की बरसात में, खिसक गई चट्टान।।
पुरवा माथा चूमती, होठो पर अंगार।
कुंठा का है सिलसिला, करना है श्रृंगार।।
चहरे अब जंगल हुए, आँखें सहमी झील।
घबराकर इस गाँव से, लगीं लौटने चील।।
कसी गरीबी गाँव में, खूँटे से मजबूत।
बंजर निकलीं डिग्रियाँ, चिलम फूँकता पूत।।
जप-तप करते रोज हैं, ज्ञानी संत फकीर।
अंधकार है बेधता, केवल सच का तीर।।
कही भोर ने धूप से, कानों में इक बात।
रोती रहती शाम से, ठंडी-ठंडी रात।।
शबनम हँसे गुलाब में, बूँद-बूँद में आब।
राह देखता धूप की, ठिठुरा चुप तालाब।।
भीगा मौसम भोग कर, करें ठिठोली ताल।
अब वह पीपल मर गया, कल था जो कंकाल।।
उबटन घोला शाम ने, खूब नहायी रैन।
नदी हुई नवयौवना, बूढ़ा पुल बेचैन।।
अनहोनी होकर रही, समय बड़ा बलवान।
आँसू की बरसात में, खिसक गई चट्टान।।
पुरवा माथा चूमती, होठो पर अंगार।
कुंठा का है सिलसिला, करना है श्रृंगार।।
चहरे अब जंगल हुए, आँखें सहमी झील।
घबराकर इस गाँव से, लगीं लौटने चील।।
कसी गरीबी गाँव में, खूँटे से मजबूत।
बंजर निकलीं डिग्रियाँ, चिलम फूँकता पूत।।
जप-तप करते रोज हैं, ज्ञानी संत फकीर।
अंधकार है बेधता, केवल सच का तीर।।
-मनोहर नारायण नरहरि
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