कुंदन सिंह ‘सजल’ के दोहे
जब तक मेरे घर रहे, आपस के विश्वास।घर में ही होता रहा, जन्नत का अहसास।।
राजनीति पर हम रहे, उत्तर-दक्षिण द्वार।
तेरे अलग विचार हैं, मेरे अलग विचार।।
अकबर के दरबार में रत्नों जैसे लोग।
तुलसी को लगते रहे, नदी, नाव संयोग।।
पिता पुरानी पोथियाँ, पुत्र नये अखबार।
तालमेल की इसलिए, चौड़ी हुई दरार।।
छल-प्रपंच से था नहीं, गाँवों का संयोग।
शहरों के सम्पर्क से, हुए सयाने लोग।।
नहीं रही गंभीरता, नेताओं के पास।
लगे फाडऩे मंच पर, अपने होश हवास।।
पहले गुण के साथ थे, सभी सार्थक नाम।
अब के राधेश्याम तो, ना राधे ना श्याम।।
हमने जी भर जी लिये, अपने-अपने दौर।
तेरे मेले और थे, मेरे मेले और।।
कुछ ने दिये विदेश में, अपने झंडे गाड़।
और झोंकते कुछ रहे, दिल्ली में भी भाड़।।
आँगन-आँगन उग रही, हैं दीवारें रोज।
और भाइयों ने ‘सजल’, लिये बहाने खोज।।
जिसने मन में ठान ली, जय करने की जंग।
उसे रोक पाये नहीं, कभी रास्ते तंग।।
जिसने दुनिया को दिया, ‘सजल’ हमेशा प्यार।
उसके $कद के सामने, नहीं उठी दीवार।।
अंबर में तारे ‘सजल’, हर पल हैं आबाद।
दिन में सबको दीखते, हैं शादी के बाद।।
रखनी है तुमको अगर, कायम अपनी चाल।
बड़ी चप्पलों में ‘सजल’, कभी पाँव मत डाल।।
संसद की सीढ़ी उतर, आ बैठी हर द्वार।
महँगाई की सर्पिणी, ‘सजल’ रही फुफकार।।
बाहर आया छोडक़र, जब सपनों की माँद।
मुझको चकमा दे गये, तारे, सूरज, चाँद।।
जब तक पैसा पास था, रहे हजारों यार।
निर्धनता में बच रहे, बस असली दो चार।।
कुछ लोगों को जानना, ‘सजल’ नहीं गंभीर।
पर कुछ को पहचानना, सचमुच टेढ़ी खीर।।
कहने की हिम्मत नहीं, ‘सजल’ झूठ को झूठ।
ऐसी करवट ले गया, यहाँ समय का ऊँट।।
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