कैलाश झा ‘किंकर’ के दोहे
आँखों से मोती झड़े, देख-देख बाजार।खेल-खिलौने पर पड़ी, महँगाई की मार।।
आँखों में सपने बहुत, हों कैसे साकार।
घूम-घूम कर बेचता, बचपन अब अखबार।।
मत्स्य-न्याय की नींव पर, महल उठाते लोग।
जो भी हैं कमजोर वो, भोग रहे हैं भोग।।
जितने हम विकसित हुए, उतने हुए अधीर।
औरों के हक छीनकर, बनने चले अमीर।।
कैसे-कैसे लोग हैं, कैसी-कैसी बात।
कोई निशि को दिन कहे, कोई दिन को रात।।
अन्धकार में जी रही, अन्धकार-सी आस।
उल्लू जैसी जिन्दगी, दिन में लगे उदास।।
लगता है अब सत्य का, गया जमाना बीत।
परिवर्तन यह विश्व का, लगता आशातीत।।
करने वाला और है, श्रेय लूटता और।
बगुला ही बनता सखे, जन-गण का सिरमौर।
बेकसूर पर लग रहा, बेमतलब अभियोग।
टूट रही है मान्यता, बदल रहे हैं लोग।।
हिन्दुस्तानी फौज का, जग में ऊँचा नाम।
मर मिटते जो देश पर, उनको सदा सलाम।।
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