डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ के दोहे
वही प्रेम का आवरण, वही नीम की छाँव।बहुत दिनों के बाद मैं, लौटा अपने गाँव।।
नैतिकता बौनी हुई, यांत्रिक हुए उसूल।
आज द्वारिकाधीश को, गया सुदामा भूल।।
तन उनका लंदन हुआ, मन पेरिस की शाम।
इधर पड़ी माँ खाट पर, उधर छलकते जाम।।
अफसर-ठेकेदार की, सबने देखी लूट।
पिछले हफ़्ते की बनी, सडक़ गयी जब टूट।।
जंगल-जंगल पुर बसे, गये सरोवर सूख।
तरह-तरह की व्याधियाँ, मिटी न मानव भूख।।
इंसानों के बीच में, नाच रहे हैवान।
कुर्सी के संग्राम में, भारी हैं शैतान।।
बैठ ‘किचन’ में आज फिर, आँसू रही उलीच।
अपनापन है ढूँढ़ती, घर-दफ़्तर के बीच।।
पापा की थी लाडली, दिया उसी ने मार।
‘प्रेम’ शब्द के नाम पर, इतना चढ़ा ख़ुमार।।
बेटी की ससुराल से, आया है फरमान।
अम्मा-बाबू हैं दुखी, कैसे जुटे ‘समान’।।
‘रघुआ’ गदगद है बड़ा, जब से मिली शराब।
पाँच साल का मिल गया, मानो उसे हिसाब।।
इसको तुम उन्नति कहो, मैं बोलूँ अवसान।
बाबा-पोते पी रहे, बैठे एक मचान।।
मंगल ग्रह की योजना, कभी चंद्र में यान।
आम आदमी ढूँढता, रोटी, वसन, मकान।।
भीतर हैं घुसपैठिए, सीमाएँ भी बंद।
जि़न्दा हैं ‘ज़ाफर’ यहाँ, जि़न्दा हैं ‘जयचंद’।।
अजब-गज़ब-से भाव थे, चाल बड़ी बेढंग।
कल मुझको रघुआ मिला, नेता जी के संग।।
बाट जोहते ही रहे, हुआ न उनसे मेल।
वर्षों पहले खत लिखा, अब आया ‘ई-मेल’।।
‘ये’ अपने में मस्त हैं, ‘वे’ अपने में मस्त।
इन दोनों के बीच में, लोकतन्त्र है पस्त।।
उस अबोध का हो गया, जीवन जैसे कीच।
रहे रात भर नोचते, ज़ालिम, वहशी, नीच।।
हम-तुम अब ऐसे हुए, जैसे कुर्सी-मेज़।
काम पड़ा तो जुड़ गये, बिना काम निस्तेज।।
जाति-धर्म के नाम पर, मचा रहे उत्पात।
है शासन का जोड़ यह, है वोटों की घात।।
सत्ता पा साहस बढ़ा, बाज न आते बाज़।
हंसों के इस देश में, बगुले हैं सरताज।।
नेहधार रस घोलती, महके इत्र-गुलाब।
बेटे ने पूरे किये, माँ के देखे ख़्वाब।।
अभिमन्यु-सी जि़न्दगी, जयद्रथ जैसे दाँव।
सपनों के इस शहर से, बहुत भला है गाँव।।
उनको घर में चाहिए, डॉगी या फिर कैट।
बूढी माँ कैसे रहे, छोटा-सा है फ़्लैट।।
पत्नी के इस तर्क पर, तोड़े सब सम्बन्ध।
‘अपना भी घर-बार है, कब तक करें प्रबन्ध’।।
हफ़्ते भर से मिल रहा, बिज़ली, पानी, खाद।
फिर चुनाव जो आ गये, पाँच बरस के बाद।।
पले-बढ़े इस देश में, लेकिन करें विरोध।
आज़ादी के जश्न में, डाल रहे अवरोध।।
उनको वैसे फल मिले, जिनके जैसे कर्म।
प्रकृति विनाशक हो रही, फिर भी करें अधर्म।।
नगर प्रशासक सो रहे, पीकर तगड़ी भंग।
नाले बज-बज कर रहे, सडक़ें हैं बदरंग।।
आये निकट चुनाव ज्यों, लगे खेलने दाँव।
भोजन करते साथ में, बैठ दलित के ठाँव।।
मार-पीट सहती नहीं, लगी कमाने दाम।
सीता क्यों सीता रहे, राम नहीं जब राम।।
औरत को डायन बता, मर्द मारते जूत।
खापें करतीं फैसले, ताकत मिली अकूत।।
रोग लगा है नोट का, बदल गये आचार।
देह मंथरा हो गयी, मन-मन भ्रष्टाचार।।
महानगर का ‘हाइवे’, जल्लादों की खेप।
कुछ भी सम्भव है यहाँ, लूट, डकैती, ‘रेप’।।
फत्तू मन में सोचता, बदलेगी तस्वीर।
रोटी तो मिलती नहीं, सपने चिलीपनीर।।
दोनों ने मिलके दिया, पूरा गाँव निचोड़।
पंच और सरपंच में, मची हुई है होड़।।
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