डॉ. कृष्णकुमार 'नाज़' के दोहे
उगता सूरज देखकर, कुहरा हुआ उदास।
खिली धूप ने छीन ली, जीवन की हर आस।।
जीवन टापू की तरह, है बेबस कमज़ोर।।
एक समंदर प्यास का, उसके चारों ओर।।
बहुत दिनों से शान्त था, यह यादों का ताल।
तुमने कंकर डालकर, पानी दिया उछाल।।
बदल गयी कुछ इस तरह, नये जगत की चाल।
सच्चाई निर्धन हुई, सदाचार कंगाल।।
तालाबों को हो गया, यह कैसा अभिमान।
ख़ुद को घोषित कर दिया, सागर की संतान।।
पतझर कुछ ऐसे हुआ, पेड़ों पर आसीन।
टहनी-टहनी हो गयी, उनकी पत्रविहीन।।
जीवन का सागर बड़ा, मन छोटी-सी नाव।
जितनी इच्छाएँ बढ़ीं, उतना तेज़ बहाव।।
बैठी हैं घेरे हुए, यादें मन का घाव।
जैसे हो चौपाल में, जलता हुआ अलाव।।
सपने में भरता रहा, ऊँची बहुत उड़ान।
आँख खुली तो जिस्म था, सारा लहूलुहान।।
गति अवरोधक बन गये, इच्छाओं के जाल।
जीवन-पथ पर हो गया, चलना बहुत मुहाल।।
बौने कितने हो गये, लम्बों से हुशियार।
सबसे आगे जुड़ गये, जब भी बनी क़तार।।
हँसते हैं ऊँचे महल, गुमसुम हैं फुटपाथ।
पात्र दया का जिस तरह, बच्चा बने अनाथ।।
सारी बस्ती में यहाँ, मचा हुआ है शोर।
दिन ढलते ही आ गया, कोई आदमख़ोर।।
जर्जर होती जा रही, रिश्तों की ज़ंजीर।
हाथ-हाथ पत्थर यहाँ, हाथ-हाथ शमशीर।।
गगन चूमते हैं जहाँ, महलों के प्राचीर।
ख़ाली हाथों लौटते, देखे वहाँ फ़क़ीर।।
राजा ने ज़ारी किया, यह अद्भुत फ़रमान।
राजमहल पर व्यंग्य है, छप्पर की मुस्कान।।
जीवन एक समुद्र है, खुला न जिसका राज़।
साथ-साथ कब चल सके, कश्ती और जहाज़।।
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