टीकम चन्दर ढोडरिया के दोहे
शुचिता की मूरत नदी, गरिमा की पहचान।
पहने है निज-देह पर, लहरों का परिधान।।
श्याम चदरिया ओढ़ कर, सोयी नदिया रात।
किरणें लगी उघाड़नें, उसका कोमल गात।।
लहरों पर क्या लिख दिया, गोरी तेरा नाम।
घाट-घाट करती फिरी, हमें नदी बदनाम।।
तन हो निर्मल नीर-सा, मन हो शिव का धाम।
एक नदी बहती रही, मुझ में प्रभु अविराम।।
नदिया से कोमल सखे, हैं किसके जज़्बात।
कंकरिया इक क्या गिरी, लगा काँपने गात।।
चिन्दीं-चिंदी हो गया, इतना लूटा नीर।
कौन सुने हैं अब भला, इस नदिया की पीर।।
सूखी नदिया कर रही, प्रश्न सभी से आज।
निर्वसना करते हुए, क्यों ना आयी लाज।।
लहरों का आँचल हटा, खिला दूधिया गात।
एक नदी लिपटी रही, मुझ से सारी रात।।
पानी की अठखेलियाँ, पानी का मृदु-हास।
पानी में घुट मर गयी, पानी की ही प्यास।।
नदिया को करके विदा, खड़ा मौन चुपचाप।
आखि़र पर्वत भी सखे, है नदिया का बाप।।
नदिया से सीखा यही, पाया इतना ज्ञान।
चलना ही जीवन सखे, रुकना मरण समान।।
उजड़ गया वह तट सखी, घने विटप की छाँव।
बैठा करते थे जहाँ, ले अध-भींगे पाँव।।
पानी तो ओझल हुआ, सिसक रही है रेत।
नदिया कहती हे मनुज, चेत सके तो चेत।।
आये हैं अफ़सर नये, फैली वन में बात।
डर से पीले पड़ गये, वृक्षों के सब पात।।
धरती माँ की देह के, जंगल है परिधान।
उसको नंगा कर रहा, क्यों मानव नादान।।
धूप शीत पानी पवन, पत्थर आरी धार।
जीवन भर सहते रहे, जंगल सबकी मार।।
परहित जीते हो सदा, हे धरती के पूत।
जंगल तुम ही संत हो, हो तुम ही अवधूत।।
पवन बजाये बाँसुरी, नदिया गाये गीत।
सबके मन को मोहता, जंगल का संगीत।।
तना फूल फल पात जड़, निर्मल नीर समीर।
सबको सब कुछ दे रहा, जंगल दानी पीर।।
सभी चराचर से सखे, उसकी गहरी प्रीत।
देता सबको आसरा, जंगल सबका मीत।।
सारे दिन की वेदना, दुःख कलेश थकान।
हर लेती है साँझ को बिटिया की मुस्कान।।
कितना भोला है भला, बिटिया का विश्वास।
पीहर में वह आज भी, बचपन रही तलाश।।
जाता हूँ जब-जब कभी, मैं पुरखों के गाँव।
लिपट-लिपट जाती सखे, माटी मेरे पाँव।।
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