पदमभूषण गोपालदास 'नीरज' के दोहे
जो आये ठहरे यहाँ, थे न यहाँ के लोग|
सबका यहाँ प्रवास है, नदी-नाव संजोग||
रुके नहीं कोई यहाँ, नामी हो कि अनाम|
कोई जाये सुबह को, कोई जाये शाम||
इस अद्भुत गणतंत्र के, अद्भुत हैं षड्यंत्र|
संत पड़े हैं जेल में, डाकू फिरें स्वतंत्र||
राजनीति के खेल ये, समझ सका है कौन|
बहरों को भी बंट रहे, अब मोबाइल फ़ोन||
आज़ादी के बाद कुछ, ऐसा हुआ विकास|
हरियाली को दे दिया, ऊसर ने वनवास||
तन से भारी साँस है, इसे समझ लो खूब|
मुरदा जल में तैरता, जिंदा जाता डूब||
चाहे बसो पहाड़ पर, या फूलों के गाँव|
माँ के आँचल से अधिक, शीतल कहीं न छाँव||
जिसमें खुद भगवान् ने, खेल खेल विचित्र|
माँ की गोदी से अधिक, तीरथ कौन पवित्र||
माला से भगवान् की, टूटे जो नक्षत्र|
वे बच्चे बन विश्व में, विचर रहे सर्वत्र||
भक्तों में कोई नहीं, बड़ा सूर से नाम|
उसने आँखों के बिना, देख लिए घनश्याम||
दोहा वर है और है, कविता वधू कुलीन|
जब इनकी भाँवर पड़ी, जन्मे अर्थ नवीन||
जिस दिन उठवाई गई, आँगन में दीवार|
छुप-छुप कर रोया बहुत, उस दिन घर में प्यार||
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