डॉ. घमंडीलाल अग्रवाल के दोहे
कई मुखौटे एक मुख, दुर्लभ है पहचान।इन्सानों के वेश में, घूम रहे शैतान।।
कैलेंडर हैं बदलते, तिथियाँ नित्य नवीन।
फिर भी नक्शा विश्व का, लगता है प्राचीन।।
एक बाप छह बेटियाँ, गायब मुख का तेज।
पेट काट कर जोडऩा, सारी उम्र दहेज।।
मैली चादर सत्य की, सिंहासन पर झूठ।
गाँवों-गाँवों वायदे, नगरों-नगरों लूट।।
छोटा कद है बाप का, आदम कद है पूत।
इसलिए नित-नित करे, पूत नई करतूत।।
कहा पेट ने पीठ से, खुलकर बारम्बार।
तेरे मेरे बीच में, रोटी की दीवार।।
कत्ल हुआ वो रात को, मुख से निकली चीख।
भोर हुए लेने लगी, सच्चाई फिर सीख।।
चली बेटियाँ द्वार से, नयनों भर कर नीर।
एक अकेलापन हुआ, बाबुल की जागीर।।
आग लगी है शहर में, जश्र मनाते काग।
लोग तमाशाई हुए, अपने-अपने राग।।
निशिगन्धा यह देखकर, हुई शर्म से लाल।
भीड़ उन्हीं के साथ थी, जिनके हाथ मशाल।।
सीखा हमने उम्रभर, सच्चाई का पाठ।
शब्द जम गए होंठ पर, देह हो गई काठ।।
जो भी जैसा है दिखे, होता उससे भिन्न।
नेक आदमी में मिले, एक अजूबा जिन्न।।
रिश्वत आई शहर में, लुप्त हो गया न्याय।
भोली जनता सह रही, पग-पग पर अन्याय।।
सत्य बोलते थे सदा, जब वो सत्ताहीन।
झूठ बोलने लग गए, अब वो सत्तासीन।।
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