डॉ ध्रुवेंद्र भदौरिया के दोहे
जब प्रीति की रीति है, सब जग से विपरीत।मिले त्याग से प्राप्ति सुख, बने पराजय जीत।।
बांहों में वट वृक्ष के, लता सिमटती देख।
प्रिय के अधरों पर लिखा, मैने भी लघु लेख।।
प्रियतम -प्रेयसि ने लिखा, मिलकर नेह निबन्ध।
तोड़े सभी समाज के, जीर्ण-शीर्ण प्रतिबन्ध।।
नारायण के नगर में, काम न आता हेम।
सिक्का जो चलता वहां, नाम उसी का प्रेम।।
व्यर्थ खजाना है वहां, अजब तरह की हाट।
क्षणिक प्रेम में बिक रहा, देखो तत्व विराट।।
आप पतित पावन अगर, आकर पकड़ो हाथ।
मुझ सा पापी जगत में, नही मिलेगा नाथ।।
महा पतित की खोज में, अब मत भटको आप।
अन्य न कोई कर सका, मुझ से बढ़ कर पाप।।
जिस प्राणी पर रीझते, माधव कृपा निधान।
धन वैभव सब छीनकर, हर लेते अभिमान।।
ओला सागर में गिरा, गिरकर हुआ विलीन।
बिंदु समाया सिन्धु में, दीनबंधु में दीन।।
इस ऋ तुराज बसंत का, अलग-अलग पैगाम।
सरसों जोगिन हो गयी, बौराए हैं आम।।
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