डॉ नलिन के दोहे
हंसपंखिनी है सुबह, मोरपंखिनी शाम।
स्वर्णपंख झलका रही, बीच-बीच में घाम।।
सिमट गया तो अणु हुआ, फैला तो आकाश।
कण-कण में ज्योतित हुआ, उसका परम प्रकाश।।
गागर में सागर भरे, मोती खाली सीप।
कविता छाया-धूप है, अँधियारे में दीप।।
नाचे जाती पुतलियाँ, डोरी दिखे न हाथ।
होंगी नहीं अनाथ ये, कोई तो है नाथ।।
विश्वासों की डोर है, संकल्पों के पास।
मन की दृढ़ता जो गयी, टूटेगा विश्वास।।
वीणा-सी वाणी मिले, शुभ्रवसन-सा चित्त।
कमलपुष्प-सा तन खिले, जीवन बने कवित्त।।
पग-पग पर माया खड़ी, रोक रही है पाँव।
इसकी तपती धूप भी, लगती शीतल छाँव।।
दुख में भी आये हँसी, हो कुछ ऐसी बात।
आते जीवन-वृक्ष में, हरे-भरे कुछ पात।।
आशा मन में जागती, आशंका भी साथ।
दोनों मानो हो रहे, दायाँ-बायाँ हाथ।।
भूख बराबर रोटियाँ, प्यास बराबर नीर।
समीकरण सीधा दिखे, गणित बड़ा गम्भीर।।
साँसों की डोरी बँधी, यों साँसों के साथ।
वाद्य हृदय का बज रहा, अब संगत के साथ।।
हर दिन खोल सँवारते, गये जीव को भूल।
तना निखारे जा रहे, सूख गया है मूल।।
मन का पौधा हो हरा, हर ले जीवन-पीर।
सच्चाई की खाद हो, और प्रेम का नीर।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें