जय चक्रवर्ती के दोहे
सड़क बनी, बिजली मिली, गाँव हुआ खुशहाल ।कोयल सबसे पूछती, कहाँ हमारी डाल ।।
सपना लिए विकास का, गाँव हुए वीरान.।
दिन-अनुदिन मोटे हुए, मुखिया, पंच, प्रधान ॥
रहे नहीं घर, बन गए, पग-पग यहाँ मकान ।
हुई आधुनिक इस तरह, गाँवों की पहचान ॥
आया मेरे गाँव में, इस ढंग से बाज़ार ।
आँखें, आँसू , आह, सब बिकने को तैयार ॥
घर के भीतर घर बने, बने द्वार में द्वार ।
अपना दुख किस से कहे, आँगन की दीवार॥
मेल-मोहब्बत-सादगी, मस्ती-धूम-धमाल ।
सारे जेवर लुट गए, गाँव हुआ कंगाल ॥
दालानों तक आ गई, मीनारों की भीड़ ।
सहमी गौरैया खड़ी, कहाँ बनाए नीड़ ॥
गौरैया रहने लगी, आए दिन बीमार ।
नन्हें -नन्हें नीड़ हैं, बड़ी-बड़ी दीवार ॥
सूनी आँखें पूछतीं, सब से यही सवाल ।
यह कैसी स्वाधीनता, जीना जहां मुहाल ॥
मेहनतकश के पेट पर, जिनकी क्रूर-खरोंच ।
उनकी ही सजती यहाँ, सोने से नित चोंच ॥
सिंहासन पर जो चढ़े, जनता की जय बोल।
जनता उनके हाथ का, अब केवल पेट्रोल ॥
छौनों के सपने छिने, गौरैयों के नीड़.।
लालक़िला बुनता रहा, वादे -भाषण-भीड़ ॥
जो भी आया रख गया, जलता एक अलाव ।
दिल्ली का दिल जानता, दिल पर कितने घाव॥
सबको अंधा कर गया, कुर्सी वाला रोग ।
गिरें न जाने कब-कहाँ, बिना आँख के लोग ॥
चंद चाबियाँ ही रहीं, हर ताले को खोल ।
तंत्र लोक है अब यहाँ, लोक तंत्र मत बोल ॥
जहां आचरण से चरण, समझे जाएँ श्रेष्ठ ।
ज्ञान भला कैसे वहाँ, पाये मान यथेष्ट ॥
घोटालों की बारिशें, घोटालों की बाढ़ ।
मेहनतकश के खून में, सनी सियासी-दाढ़॥
हमने नापी उम्र-भर, शब्दों की जागीर ।
ढाई-आखर लिख हुए, जग में अमर कबीर ॥
ये जो महफिल है यहाँ, हम भी हैं मौजूद ।
मगर हमारा क्यों नहीं, दिखता तुम्हें वजूद ॥
सुनो मान्यवर ! अंततः, मेरी भी आवाज ।
और करोगे कब तलक, मुझे नज़रअंदाज़ ॥
हमे भूलिएगा, मगर, इतना रखिए याद ।
हम में ही है आपके, होने की बुनियाद ॥
करना है जिसको करे, सत्ता की जयकार ।
लिक्खेगे अन्याय का हम हरदम प्रतिकार ॥
अभी हमारे पास है, ज़िन्दा एक ज़मीर ।
अभी हमारी आँख में, बचा हुआ है नीर ॥
हे प्रभु! मेरे कलम की, रखना पैनी धार ।
विकृतियों पर कर सकूँ, मैं जीवन-भर वार ॥
रहें कलम की नोक पर, अक्षर यूँ आसीन ।
ज़िन्दा हूँ इस बात का, मुझको रहे यकीन ॥
कलम चूमती हो जहाँ, सिंहासन के पाँव ।
कभी न दिखलाना प्रभो! वह दुर्दिन का गाँव ॥
रहे मुबारक आपको, सुख-सपनों की छांव ।
संघर्षों की धूप में, हम रोपेंगे पाँव ॥
आँखें, आँसू , आह, सब बिकने को तैयार ॥
घर के भीतर घर बने, बने द्वार में द्वार ।
अपना दुख किस से कहे, आँगन की दीवार॥
मेल-मोहब्बत-सादगी, मस्ती-धूम-धमाल ।
सारे जेवर लुट गए, गाँव हुआ कंगाल ॥
दालानों तक आ गई, मीनारों की भीड़ ।
सहमी गौरैया खड़ी, कहाँ बनाए नीड़ ॥
गौरैया रहने लगी, आए दिन बीमार ।
नन्हें -नन्हें नीड़ हैं, बड़ी-बड़ी दीवार ॥
सूनी आँखें पूछतीं, सब से यही सवाल ।
यह कैसी स्वाधीनता, जीना जहां मुहाल ॥
मेहनतकश के पेट पर, जिनकी क्रूर-खरोंच ।
उनकी ही सजती यहाँ, सोने से नित चोंच ॥
सिंहासन पर जो चढ़े, जनता की जय बोल।
जनता उनके हाथ का, अब केवल पेट्रोल ॥
छौनों के सपने छिने, गौरैयों के नीड़.।
लालक़िला बुनता रहा, वादे -भाषण-भीड़ ॥
जो भी आया रख गया, जलता एक अलाव ।
दिल्ली का दिल जानता, दिल पर कितने घाव॥
सबको अंधा कर गया, कुर्सी वाला रोग ।
गिरें न जाने कब-कहाँ, बिना आँख के लोग ॥
चंद चाबियाँ ही रहीं, हर ताले को खोल ।
तंत्र लोक है अब यहाँ, लोक तंत्र मत बोल ॥
जहां आचरण से चरण, समझे जाएँ श्रेष्ठ ।
ज्ञान भला कैसे वहाँ, पाये मान यथेष्ट ॥
घोटालों की बारिशें, घोटालों की बाढ़ ।
मेहनतकश के खून में, सनी सियासी-दाढ़॥
हमने नापी उम्र-भर, शब्दों की जागीर ।
ढाई-आखर लिख हुए, जग में अमर कबीर ॥
ये जो महफिल है यहाँ, हम भी हैं मौजूद ।
मगर हमारा क्यों नहीं, दिखता तुम्हें वजूद ॥
सुनो मान्यवर ! अंततः, मेरी भी आवाज ।
और करोगे कब तलक, मुझे नज़रअंदाज़ ॥
हमे भूलिएगा, मगर, इतना रखिए याद ।
हम में ही है आपके, होने की बुनियाद ॥
करना है जिसको करे, सत्ता की जयकार ।
लिक्खेगे अन्याय का हम हरदम प्रतिकार ॥
अभी हमारे पास है, ज़िन्दा एक ज़मीर ।
अभी हमारी आँख में, बचा हुआ है नीर ॥
हे प्रभु! मेरे कलम की, रखना पैनी धार ।
विकृतियों पर कर सकूँ, मैं जीवन-भर वार ॥
रहें कलम की नोक पर, अक्षर यूँ आसीन ।
ज़िन्दा हूँ इस बात का, मुझको रहे यकीन ॥
कलम चूमती हो जहाँ, सिंहासन के पाँव ।
कभी न दिखलाना प्रभो! वह दुर्दिन का गाँव ॥
रहे मुबारक आपको, सुख-सपनों की छांव ।
संघर्षों की धूप में, हम रोपेंगे पाँव ॥
जीवन में है जब तलक, शेष एक भी साँस ।
अनाचार, अन्याय की, काटूँगा हर फाँस॥
लगे लेखनी पर प्रभो ! कभी न कोई दाग ।
शब्दों में ज़िन्दा रहे, प्रतिरोधों की आग ॥
आँगन–आँगन भूख थी, पनघट-पनघट प्यास ।
कुर्सी-कुर्सी जश्न था, मंच-मंच मधुमास ॥
दहशत में हैं मछलियाँ, सकते मे है ताल ।
मछुआरों ने हर तरफ, डाल दिये हैं जाल ॥
होठों पर उपवास है, मुँह में छप्पन भोग ।
संसद तेरी कोख में, कितने शातिर लोग ॥
पग-पग जुमलेबाज़ियाँ, बात-बात में दाँव ।
लफ़्फ़ाजों के जाल में, कैद समूचा गाँव ॥
बादल दोहराते रहे, यूँ अपना इतिहास ।
सागर-सागर बारिशें, मरुथल-मरुथल प्यास ॥
पानी तक पहुँची नहीं, पानी की अरदास ।
पानी की मज़बूरियाँ, थीं पानी के पास ॥
पानी बिन प्यासा मरा, पंछी पानीदार ।
पानी-पानी हो गया, पानी का बाज़ार ॥
पानी के अधिपत्य में, था भूगोल-खगोल ।
पानी ने मांगा कहाँ, कब पानी का मोल ॥
दुनिया जब करने लगी, पानी का व्यापार ।
पानी रोया फूटकर, अपनी दशा निहार ॥
पानी संकट पर इधर, थी संसद गमगीन ।
राजमार्ग पर थे उधर, पानी के कालीन ॥
दुनिया-भर के रंग थे, यूँ पानी के संग ।
पानी था फिर भी मगर, अंग-अंग बेरंग ॥
सबकी अपनी चाहतें, सबकी अपनी आस ।
पानी-दुखिया किस तरह, सींचे सबकी प्यास ॥
प्यासे पनघट ने लिखा, जब पानी का नाम।
पानी- पानी में हुआ, पानी पर संग्राम ॥
धरती, सागर, बदलियाँ, सबकी अपनी प्यास ।
सबके अपने दर्द के, अंतहीन अनुप्रास ॥
प्यासा भी लाचार था, पानी भी लाचार ।
पानी पर भारी पड़ा, पानी का बाज़ार ॥
पनघट-पनघट प्यास थी, दरिया–दरिया रेत ।
मरते पानी ने कहा, पगले अब तो चेत !!
दर्द एक जैसे मगर, अलग-अलग अहसास।
हमने तो पानी लिखा, उसने बाँची प्यास ॥
अंतहीन बरबादियाँ, हैं पानी को याद ।
पानी की इस पीर का ,कौन करे अनुवाद !!
फिर मौसम ने भेज दी, यादों की सौगात ।
दुख आया दुख ओढ़कर, दुख से करने बात ॥
सुख आया कुछ देर को, गया दिखाकर रंग ।
दुख ने ही आखिर दिया, अपने दुख का संग ॥
दुख ने जी-भरकर किया, जीवन-भर संवाद ।
जितना हम भूले उसे, उतना आया याद ॥
जीवन-भर करते रहे, रामायण का पाठ ।
स्नेह, शील, संवेदना, रहे काठ के काठ ॥
कविता का बुनते रहे, हम जीवन-भर जाल ।
कविता से गायब रहा, कविता का समकाल ॥
शब्द समय की चाल से, लेते कैसे होड ।
घूँघट की ही सरहदें, नहीं सके जब तोड़ ॥
कवितापन के बोझ से, थी कविता लाचार ।
दूर दूर तक दूर था, पर कवि का किरदार ॥
दुनिया-भर की खोज में, भटक रहा है रोज ।
वक़्त मिले तो एक दिन, खुद में खुद को खोज ॥
टाँक समय के वक्ष पर, कुछ अपना भी ज़िक्र।
करता है इस दौर में, कौन किसी की फिक्र !!
मक्कारों के वास्ते, हर ऐशो- आराम ।
भूख, प्यास, बदहालियाँ, मेहनतकश के नाम ॥
रोज लड़ाई भूख से, रोज दुखों से प्यार ।
हिस्से में मजदूर के, कब आया इतवार !!
चखा पसीने का नहीं, कभी जिन्होने स्वाद ।
मेहनतकश की भूख का, वे करते अनुवाद ॥
हंगामें, लफ़्फ़ाज़ियाँ, जुमले, भ्रष्ट –बयान ।
संसद में संसद हुई, हर दिन लहूलुहान ॥
जन-गण के दुख की यहाँ, नहीं किसी पर आंच ।
संसद-दुखिया देखती, हर पल नंगा- नाच ॥
अजब-गजब थी गोटियाँ, अजब-गज़ब थे खेल ।
संसद पर ताने रही, संसद स्वयं गुलेल ॥
नारे, भाषण, तल्खियाँ, शोर सुबह से शाम ।
काम छोड़ कर के किया, संसद ने हर काम ॥
संसद में होता रहा, खुद संसद का खून ।
संसद में असहाय थे, संसद के कानून ॥
वेतन भत्ते, गाड़ियाँ, सुविधाओं की फौज ।
थी संसद की गोद में, हर कुर्सी की मौज ॥
संसद पहुँचे चूमकर, जो इसकी दहलीज़ ।
संसद उनके वास्ते, अब मस्ती की चीज ॥
यूँ संसद में देख कर, संसद का उपहास ।
थी संसद की सीढ़ियाँ, गुमसुम और उदास ॥
(6)
बदज़बान थी कुर्सियाँ, बेलगाम थे बोल ।
संसद में बदशक्ल था, संसद का भूगोल ॥
कभी जाति, भाषा कभी, कभी धर्म के नाम ।
संसद में संग्राम था, संसद में कोहराम ॥
हर कोई था दंभ के, घोड़े पर आरूढ़ ।
संसद में संसद दिखी, किंकर्तव्यविमूढ़ ॥
हर युग में तुगलक हुए, हर युग में जयचंद ।
हर युग में इतिहास ने, दोहराए छल-छंद ॥
हर युग में सत्ता रही, धृतराष्ट्रों के पास ।
शर्मशार होता रहा, हर युग का इतिहास ॥
राजा नंगा है मगर, कौन करे ऐलान ।
सबकी आँखें बंद हैं, सबकी सिली ज़बान ॥
चेहरा, चाल, चरित्र पर, हावी रहा घमंड ।
सत्ताओं के साथ है, सत्ता का पाखंड ॥
तिल जैसी उपलब्धि को, बतलाते हैं ताड़ ।
राजा जी खुद झूठ के, अब बन गए पहाड़ ॥
नंगा राजा सोचता, नंगेपन के दाँव ।
किसकी छीने रोटियाँ, किसके सर से छांव ॥
होठों पर उपवास है, मुँह में छप्पन भोग ।
संसद तेरी कोख में, कितने शातिर लोग ॥
पग-पग जुमलेबाज़ियाँ, बात-बात में दाँव ।
लफ़्फ़ाजों के जाल में, कैद समूचा गाँव ॥
बादल दोहराते रहे, यूँ अपना इतिहास ।
सागर-सागर बारिशें, मरुथल-मरुथल प्यास ॥
पानी तक पहुँची नहीं, पानी की अरदास ।
पानी की मज़बूरियाँ, थीं पानी के पास ॥
पानी बिन प्यासा मरा, पंछी पानीदार ।
पानी-पानी हो गया, पानी का बाज़ार ॥
पानी के अधिपत्य में, था भूगोल-खगोल ।
पानी ने मांगा कहाँ, कब पानी का मोल ॥
दुनिया जब करने लगी, पानी का व्यापार ।
पानी रोया फूटकर, अपनी दशा निहार ॥
पानी संकट पर इधर, थी संसद गमगीन ।
राजमार्ग पर थे उधर, पानी के कालीन ॥
दुनिया-भर के रंग थे, यूँ पानी के संग ।
पानी था फिर भी मगर, अंग-अंग बेरंग ॥
सबकी अपनी चाहतें, सबकी अपनी आस ।
पानी-दुखिया किस तरह, सींचे सबकी प्यास ॥
प्यासे पनघट ने लिखा, जब पानी का नाम।
पानी- पानी में हुआ, पानी पर संग्राम ॥
धरती, सागर, बदलियाँ, सबकी अपनी प्यास ।
सबके अपने दर्द के, अंतहीन अनुप्रास ॥
प्यासा भी लाचार था, पानी भी लाचार ।
पानी पर भारी पड़ा, पानी का बाज़ार ॥
पनघट-पनघट प्यास थी, दरिया–दरिया रेत ।
मरते पानी ने कहा, पगले अब तो चेत !!
दर्द एक जैसे मगर, अलग-अलग अहसास।
हमने तो पानी लिखा, उसने बाँची प्यास ॥
अंतहीन बरबादियाँ, हैं पानी को याद ।
पानी की इस पीर का ,कौन करे अनुवाद !!
फिर मौसम ने भेज दी, यादों की सौगात ।
दुख आया दुख ओढ़कर, दुख से करने बात ॥
सुख आया कुछ देर को, गया दिखाकर रंग ।
दुख ने ही आखिर दिया, अपने दुख का संग ॥
दुख ने जी-भरकर किया, जीवन-भर संवाद ।
जितना हम भूले उसे, उतना आया याद ॥
जीवन-भर करते रहे, रामायण का पाठ ।
स्नेह, शील, संवेदना, रहे काठ के काठ ॥
कविता का बुनते रहे, हम जीवन-भर जाल ।
कविता से गायब रहा, कविता का समकाल ॥
शब्द समय की चाल से, लेते कैसे होड ।
घूँघट की ही सरहदें, नहीं सके जब तोड़ ॥
कवितापन के बोझ से, थी कविता लाचार ।
दूर दूर तक दूर था, पर कवि का किरदार ॥
दुनिया-भर की खोज में, भटक रहा है रोज ।
वक़्त मिले तो एक दिन, खुद में खुद को खोज ॥
टाँक समय के वक्ष पर, कुछ अपना भी ज़िक्र।
करता है इस दौर में, कौन किसी की फिक्र !!
मक्कारों के वास्ते, हर ऐशो- आराम ।
भूख, प्यास, बदहालियाँ, मेहनतकश के नाम ॥
रोज लड़ाई भूख से, रोज दुखों से प्यार ।
हिस्से में मजदूर के, कब आया इतवार !!
चखा पसीने का नहीं, कभी जिन्होने स्वाद ।
मेहनतकश की भूख का, वे करते अनुवाद ॥
हंगामें, लफ़्फ़ाज़ियाँ, जुमले, भ्रष्ट –बयान ।
संसद में संसद हुई, हर दिन लहूलुहान ॥
जन-गण के दुख की यहाँ, नहीं किसी पर आंच ।
संसद-दुखिया देखती, हर पल नंगा- नाच ॥
अजब-गजब थी गोटियाँ, अजब-गज़ब थे खेल ।
संसद पर ताने रही, संसद स्वयं गुलेल ॥
नारे, भाषण, तल्खियाँ, शोर सुबह से शाम ।
काम छोड़ कर के किया, संसद ने हर काम ॥
संसद में होता रहा, खुद संसद का खून ।
संसद में असहाय थे, संसद के कानून ॥
वेतन भत्ते, गाड़ियाँ, सुविधाओं की फौज ।
थी संसद की गोद में, हर कुर्सी की मौज ॥
संसद पहुँचे चूमकर, जो इसकी दहलीज़ ।
संसद उनके वास्ते, अब मस्ती की चीज ॥
यूँ संसद में देख कर, संसद का उपहास ।
थी संसद की सीढ़ियाँ, गुमसुम और उदास ॥
(6)
बदज़बान थी कुर्सियाँ, बेलगाम थे बोल ।
संसद में बदशक्ल था, संसद का भूगोल ॥
कभी जाति, भाषा कभी, कभी धर्म के नाम ।
संसद में संग्राम था, संसद में कोहराम ॥
हर कोई था दंभ के, घोड़े पर आरूढ़ ।
संसद में संसद दिखी, किंकर्तव्यविमूढ़ ॥
हर युग में तुगलक हुए, हर युग में जयचंद ।
हर युग में इतिहास ने, दोहराए छल-छंद ॥
हर युग में सत्ता रही, धृतराष्ट्रों के पास ।
शर्मशार होता रहा, हर युग का इतिहास ॥
राजा नंगा है मगर, कौन करे ऐलान ।
सबकी आँखें बंद हैं, सबकी सिली ज़बान ॥
चेहरा, चाल, चरित्र पर, हावी रहा घमंड ।
सत्ताओं के साथ है, सत्ता का पाखंड ॥
तिल जैसी उपलब्धि को, बतलाते हैं ताड़ ।
राजा जी खुद झूठ के, अब बन गए पहाड़ ॥
नंगा राजा सोचता, नंगेपन के दाँव ।
किसकी छीने रोटियाँ, किसके सर से छांव ॥
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