यश मालवीय के दोहे
फँसी गले में रह गयी, कोयलिया की कूक।दाएँ भी बंदूक थी, बाएँ भी बंदूक।।
केला-बिस्कुट-संतरा, गुड्डा-गुडिय़ा-गेंद।
सब कुछ गायब हो गया, किसने मारी सेंध।।
कदम-कदम पर जि़ंदगी, दर्द रही है झेल।
ज्यों सुरंग के बीच से, गुजर रही है रेल।।
जलता खुद की आग में, राहत का सामान।
बादल भागे छोडक़र, जलता हुआ मकान।।
लाल किला पीला पड़ा, काली आँधी देख।
ये कैसी है सल्तनत, पागल हुए सरेख।।
नयी-नयी है योजना, नया-नया षणयंत्र।
सोया है फुटपाथ पर, भारत का जनतंत्र।।
चिनगारी के बीज से, उगा आग का पेड़।
आँखें करती ही रहीं, सपनों से मुठभेड़।।
अखबारों की आँख में, अफवाहों की आग।
कदम-कदम पर जागता, जलियाँवाला बाग।।
पुस्तक में ही खो गया, भारत का इतिहास।
दीमक चाटी मेज पर, तस्वीरें हैं खास।।
लहर-लहर में गा उठे, लय गति यति अनुभाव।
भरे गाल के ताल पर, चली होंठ की नाव।।
बरखा के दिन आ गए, हँसे खेत खपरैल।
एक हँसी में घुल गया, मन का सारा मैल।।
अवरोही बादल भरें, फिर घाटी की गोद।
बजा रहे हैं डूबकर, अमजद अली, सरोद।।
जब से आया गाँव में, यह मौसम अवधूत।
बादल भी मलने लगे, अपने अंग भभूत।।
धीरे-धीरे खिल गयी, तन पर मन की बात।
साँसों भीगा चन्द्रमा, सेंदुर भीगी रात।।
घाटी में लुक छिप करें, पर्वत के संकेत।
बात-बात पर रूठती, मेरी ‘रानीखेत’।।
बालों से मोती गिरा, फिसली कोई बूँद।
धीरे-धीरे आइना, आँख रहा है मूँद।।
धूप लगाती कहकहे, हँसती है दहलीज़।
रूप पहनता छाँव में, पलकों के ताबीज।।
सुबह-सुबह छत पर चढ़ी, बिटिया जैसी धूप।
गीले आँगन देखती, अपना ही प्रतिरूप।।
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