रामानुज त्रिपाठी के दोहे
अंधकार ने ली हड़प, जब से सारी खाट।
बिछा रही है रोशनी, फटा-पुराना टाट।।
अपहृत करके रोशनी, कर चिराग़ को क़ैद।
अंधकार है हो गया, पहरे पर मुस्तैद।।
आपस में लड़ने लगे, प्रत्यय, सन्धि, समास।
देख-देख कर व्याकरण, रहता बहुत उदास।।
इधर अहर्निश चल रहे, दंगे, हत्या, ख़ून।
उधर चुप्पियाँ साधकर, पंगु पड़ा क़ानून।।
ईंगुर-ईंगुर-सी सुबह, काजल-काजल साँझ।
अमराई में बज उठी, है मधुऋतु की झाँझ।।
कई समंदर ख़ून के, पीकर भरा न पेट।
बैठा अजगर द्वेष का, अपनी पूँछ समेट।।
करके वादे हँस रहे, ऊँचे महल तमाम।
लेकिन रोयीं झुग्गियाँ, सोच-सोच परिणाम।।
कहीं भूख से हो गयी, निश्चय कोई भूल।
बदल रही हैं रोटियाँ, अपने सभी उसूल।।
खड़े गवाही दे रहे, ठूँठ आम के पेड़।
हरियाली को बाग़ से, मौसम रहा खदेड़।।
सुन रक्खा था सत्य के, हैं लोहे के पाँव।
जाने कैसे हो गये, अब उनमें भी घाव।।
लड़ने लगी प्रकाश से, जब ख़ुद की क़ंदील।
उमड़ी अवसर देख कर, अंधकार की झील।।
रंगों डूबी तूलिका, पड़ी बहुत बीमार।
हैरत में हर चित्र है, करें कौन उपचार।।
यहाँ पेट अब भर रही, बारूदों की आग।
कौन बनाये रोटियाँ, कौन पकाये साग।।
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