बजरंग श्री सहाय 'रवि' के दोहे
गुब्बारों का हो गया, किनसे कैसा मेल।
नागफनी के बाग़ में, गेंद रहे हैं खेल।।
मैना को धोखा हुआ, समझ न पायी मर्म।
तोते ने अपना लिया, आज बाज का धर्म।।
एक कसाई ने दिया, भावुक-सा व्याख्यान।
सारे बछड़े कर रहे, उसका ही जय-गान।।
यादों के गुलदान के, बिखर गये सब फूल।
सूखी नदी अतीत की, बाँह पसारे कूल।।
दो बेटों में बँट गयी, ममता की तक़दीर।
देख रही माँ दूध में, खींची गयी लकीर।।
ठीक निशाने पर हुआ, ज्यों ही शर सन्धान।
त्यों ही छल ने तोड़ दी, खींची हुई कमान।।
ऊषा थर-थर काँपती, अधर भींच कर लाल।
ओढ़ रखी है सूर्य ने, श्वेत तुहिन की शाल।।
कब तक उनके सामने, आप रहेंगे मूक।
जो पानी पीकर रहे, उसी कुएँ में थूक।।
ज्ञानहीन सब ज्ञान पर, करने लगे विवाद।
बन्दर हैं बतला रहे, अब अदरक का स्वाद।।
लोकतन्त्र के नाम पर, भीलों के सरदार।
मधुवन के विध्वंस का, माँग रहे अघिकार।।
मोती ग़ायब हो गयी, खुली पड़ी थी सीप।
आयी धोखे की हवा, बुझा प्रेम का दीप।।
बहुत हुआ पीछे हटो, कितनी होगी चूक।
पुनः बाज़ के फेर में, मारा गया उलूक।।
बाबू को जिसने दिया, धन के बदले फूल।
उसकी फ़ाइल पर जमी, मोटी-मोटी धूल।।
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