डॉ. महेश मनमीत के दोहे
बचने की मल्लाह ने, कोशिश की भरपूर।
मगर किनारा रह गया, उससे थोड़ी दूर।।
लिये चने की पोटली, निकला नंगे पाँव।
मुझसे मेरी भूख ने, छीना मेरा गाँव।।
ख़ून-पसीना बेचकर, मिला यही ईनाम।
उनके हिस्से रोटियाँ, अपने हिस्से काम।।
जाने ले जाये कहाँ, थोड़ा-सा भटकाव।
तू इठलाती-सी नदी, मैं काग़ज़ की नाव।।
गूँजी, फिर गुम हो गयी, सन्नाटे में चीख।
अबला अपनी लाज की, रही माँगती भीख।।
पीछे मुड़ कर देखिए, हुई कहाँ पर चूक।
केसर वाले खेत में, उग आई बन्दूक।।
कल तक जो थे ढूँढ़ते, सबके अंदर खोट।
उनकी हालत आजकल, जैसे जाली नोट।।
तब टूटेगा बाज़ का, जज़्बा और जुनून।
चिड़िया तू मज़बूत कर, पंख और नाखून।
साँझ, सवेरे, दोपहर, मँडराती है चील।
शायद बस्ती हो रही, जंगल में तब्दील।।
मैं थोड़ा खुद्दार था, वो थोड़ा कमज़र्फ।
धीरे-धीरे जम गयी, इस रिश्ते पर बर्फ।।
कोई साज़िश है यहाँ, या फिर है संयोग।
मूक-बधिर कैसे हुए, इतने सारे लोग।।
देख दशा इस दौर की, कालचक्र है मौन।
जो ख़ुद चाहे डूबना, उसे उबारे कौन।।
सहम गयी यह देखकर, चिड़ियों की चौपाल।
गिद्ध नाश्ते के लिए, अण्डे रहा उबाल।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें