डॉ.राधेश्याम शुक्ल के दोहे
धूप कड़ी, छाया घनी, दोनों अब निर्मूल।मौसम से कुछ हो गई, कहीं $खास ही भूल।।
लिए हुए वारन्ट-सा आती हर तारीख।
फिरे माँगती जि़न्दगी, अब पनाह की भीख।।
‘पानी’ का देकर भरम, दर-दर रेगिस्तान।
मार रहे हैं हिरन को, करके लहूलुहान।।
सोख रही है आँख का, ‘पानी’ तक यह प्यास।
हमें कहाँ ले जाएगा, यह च्लोबली विकास।।
‘कौशल्या’ $खत जोहतीं, ‘दशरथ’ देखें बाट।
कंचनमृग के फेर में, ‘राम’ बिक रहे हाट।।
हम पंछी ‘परदेस’ के, हम पानी की जात।
आज यहाँ, कल को कहाँ, क्या पूछो हो बात।।
‘सुबह’ दिहाड़ी पर गई, थक कर आई ‘शाम’।
लिखे रात भर ‘झोपड़ी’, $खत सूरज के नाम।।
महँगाई दुश्शासनी, गिरा रही है गाज।
ढँकती फिरें ‘गिरस्तियाँ’, उघरी-उघरी लाज।।
रोटी के सपने इधर, उधर महल के ख़्वाब।
मरी रिआया बोझ से, कंधे चढ़े नवाब।।
किसी जुआघर की सुबह, या मरघट की शाम।
महानगर की जि़न्दगी, तुझको दूँ क्या नाम।।
हाय सियासत बन गई, जिनगानी की सौत।
राजा जी का खेल है, और प्रजा की मौत।।
अरी प्रजा तू तंत्र से, नाहक करती रश्क।
भूख लगे, खा आँकड़े, प्यास लगे पी अश्क।।
पिता चन्दनी पालना, बट-पीपल की छाँव।
दूर क्षितिज को नापते, धूलि धूसरित पाँव।।
पत्नी आँगन की नदी, बिरवा है घर-बार।
सींच-सींच कर सूखती, ढोती रेत अपार।।े
बेटी वेदों की ऋचा, बहुत मौन गंभीर।
खुल कर कभी न कह सके, मन की पूरी पीर।।
बेटा है माँ-बाप की, इच्छा का आकाश।
वक्त पड़े भूगोल है, वक्त पड़े इतिहास।।
औरत चि_ी दर्द की, जिस पर पता-मुकाम।
फेंक गया है डाकिया, पत्थर वाले गाम।।
बाद रिटायरमेंट के, कटा-बँटा परिवार।
कुछ कड़वी सच्चाइयाँ, मुखरीं पहली बार।।
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