रामहर्ष यादव 'हर्ष' के दोहे
दुरभि-संधियाँ हो गयीं, दुष्टजनों के बीच।
सिर्फ़ दिखावे के लिए, कीचड़ रहे उलीच।।
झोपड़ियों के मौन से, महलों में रस-रंग।
यह क्षमता संतोष की, देख दुखी मन दंग।।
ऊँच-नीच के भेद का, यों बोया विष-बीज।
पशु-पक्षी हैं देवता, मानव है नाचीज़।।
चूर हुए मद-मोह में, हासिल कर संसार।
क़ैद और दुख-दण्ड को, मान रहे उपहार।।
आँगन में सीढ़ी लगी, चढ़ा न धरकर पाँव।
जीवन-धन लुटवा दिया, राग-द्वेष के गाँव।।
सोन चिरैया उड़ चली, पकड़ पिया का हाथ।
व्याकुल स्वजन-सहेलियाँ, आँगन हुआ अनाथ।।
छद्म-भेष धारण किये, तरह-तरह के राग।
छलने को तैयार हैं, कोयल वन में काग।।
भाषण करते भेड़िये, मधुर-मधुर सन्देश।
भेड़ों की बेचारगी, समझ न पातीं भेष।।
पाखण्डों को पोसना, जिनका कारोबार।
रहते इसी फ़िराक में, पड़ती रहे दरार।।
माटी है माटी इसे, होना सौ परसेंट।
ज्यों पत्थर बनती पुनः, पत्थर की सीमेंट।।
गहरे उतरा टेरता, सुने नहीं संसार।
सागर बीचोंबीच है, सब रस का भंडार।।
दाग़दार चेहरे हुए, लोगों के सिरमौर।
ऐसे में ईमान पर, कौन करेगा गौर।।
राहजनी व्यवहार से, रहबर का गठजोड़।
इसीलिए हर फ़ैसला, करता तोड़-मरोड़।।
बहुत खूब आदरणीय आभार 🙏
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