डॉ.महाश्वेता चतुर्वेदी के दोहे
अभिनय के संसार में, भूल गये आचार।जो चलता है दान पर, क्या जाने आचार।।
प्रेम वृक्ष से टूटकर, शाख हुई है क्षार।
पुन: जोडऩे का जिसे, श्रम रहता बेकार।।
शाखों पर कोयल नहीं और न वन में मोर।
पपीहा बिन कैसे सुना, तुमने उसका शोर।।
अब न हिंडोले कुंज में और नहीं मल्हार।
राधा नागर के बिना, नीरस है संसार।।
पाँव नहीं हैं झूठ के, फिर भी यह हर ओर।
जिधर देखिए बस उधर, है इसका ही शोर।।
शठ की शठता का रहा, जग में एक उपाय।
मेधा बल जब साथ में, होना क्या निरुपाय।।
हिन्दी का करता रहा, है जो सदा हलाल।
आता है हिन्दी दिवस, जाने का तत्काल।।
घडिय़ाली आँसू बहे, चली शब्द बौछार।
पर हिन्दी के प्रति नहीं, मिला किसी में प्यार।।
आत्महीनता से नहीं, हो सकता सम्मान।
हिन्दी की सम्पन्नता, है उसकी पहचान।।
हो समाज उत्थान यदि, तो निश्चय है जान।
इस हिन्दी की विश्व में, अमिट बने पहचान।।
हर दिन हो हिन्दी दिवस, हर दिन गौरव गान।
हर भारतवासी करे, हिन्दी पर अभिमान।।
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