डॉ. प्राची सिंह के दोहे
वक़्त चिरैया उड़ रही, नित्य क्षितिज के पार।राग सुरीले छेड़ती, अपने पंख पसार।।
वक़्त परिंदा बाँध ले, बन्ध न ऐसो कोय।
थाम इसे जो उढ़ चले, जीत उसी की होय।।
पर्यावरणिक तंत्र है, सात सुरों का राग।
भू, जल, अम्बर तत्व सब, अन्त: गर्भित भाग।।
भूधर, जलधर, वायुधर, सब की बदली चाल।
जड़ चेतन सब कांपते, हो दूषित बदहाल।।
क्षत विक्षत जल औ धरा, बदल रही जलवायु।
सुख के साधन बढ़ रहे, घटी मनुज की आयु।।
प्रकृति करे अनुनय विनय, सुन लो करुण पुकार।
रक्षा की कर याचना, माँग रही है प्यार।।
कल-कल कर बहती नदी, मस्ती भर दे अंग।
वाचाला औ चंचला, बदले पल पल रंग।।
फूलों में खुशबू बसी, श्वांसों घोले प्यार।
दो अनजाने इक बनें, बदल पुष्प के हार।।
हरियाली की ओढऩी, ओढ़े मातृ स्वरूप।
क्षत-विक्षत कर ओढऩी, मानव करे कुरूप।।
काँटों में मुस्का रहे, हर पल सुन्दर फूल।
सुख-दुख सम रहना सदा, बात न जाना भूल।।
पर्वत हिम मस्तक सजा, चूम रहे आकाश।
सिद्ध संत कर साधना, बाँटें दिव्य प्रकाश।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें