रामबाबू रस्तोगी के दोहे
आवारा सूरज करे, उल्टे-सीधे काम।
दर्द सुरमई पीठ पर, रख कर घूमे शाम।।
सूरजमुखी उधार के, दानपात्र की धूप।
भाड़े की किरणें लिखें, मौसम का प्रारूप।।
बन्दूकों की नोक पर, पूछे गुल का हाल
बग़िया को महँगा पड़ा, माली का सुर-ताल।।
आँसू की गोदावरी, ढूँढ़ रही है राह।
इन आँखों की झील से, मुश्किल है निर्वाह।।
धुआँ सोखतीं टहनियाँ, शोकगीत-से फूल।
नागफनी आँखें हुईं, चेहरे हुए बबूल।।
अँधियारे से मिन्नतें, उजियारे से बैर।
माँग रहे हैं वक़्त से, मौसम अपनी ख़ैर।।
यादों के कुरुक्षेत्र में, दुख के सारे कोण।
यहाँ पराजित सब हुए, अर्जुन हों या द्रोण।।
सूनी रहीं कलाइयाँ, धागे हुए उदास।
रिश्तों ने भोगा यहाँ, आजीवन वनवास।।
जूही जैसे दिन हुए, नरगिस जैसी शाम।
जबसे हमने टाँक दीं, ऋतुएँ तेरे नाम।।
सड़क कहीं जाती नहीं, चलते कब फुटपाथ।
जिसका जितना है सफ़र, उसका उतना साथ।।
मन मीरा की अर्चना, तन रेतीली शाम।
पलकों के पीछे कहीं, छिपे रहे घनश्याम।।
माधव भी लिखने लगे, मुँहदेखी तहरीर।
कौन द्रौपदी के लिए, भेजेगा अब चीर।।
नागफनी पढ़ने लगी, जबसे मीठे छन्द
ख़ुशबू तबसे घूमती, खोले बाजूबन्द ।
बादल बरसे जेठ में, सावन रहे उदास।
मौसम की सौगन्ध का, कौन करे विश्वास।।
जिसे मसीहा मान कर, नमन किया हर-बार।
वही हमें देता रहा, आँसू का उपहार।।
सात समंदर आपके, मेरी छोटी नाव।
उस पर बादल बिजलियाँ, डालें रोज़ दबाव।।
सूखे बादल रोज़ यदि, करते रहे प्रणाम।
रेत लिखेगी एक दिन, फिर फूलों पर नाम।।
किसे सुनाये चाँदनी, अपने मन की पीर।
सब दुःशासन हो गये, राजा और वज़ीर।।
सब सूरज देते नहीं, ख़ुशियों के आलोक।
हर कलिंग की कोख से, उगते नहीं अशोक।।
काँटों पर रक्खी गयी, फूलों की बुनियाद।
फिर करने को क्या बचा, इस क़ुसूर के बाद।।
बाज़ीगर के हाथ में, डमरू और नकेल।
उनके हिस्से तालियाँ, अपने हिस्से खेल।।
राजमार्ग के अन्त में, राजा का आवास।
दूरी उनके पास है, सफ़र हमारे पास।।
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